Anant Singh: इस चुनावी जीत के बाद भी मोकामा के महाराज उर्फ छोटे सरकार उर्फ अनंत सिंह का पूरा राजनीतिक भविष्य अदालत और कानूनी प्रक्रियाओं पर ही निर्भर करेगा..
क्या जात और भात ने फिर दिलाई अनंत सिंह को जीत? आरजेडी की वीणा देवी को मिली हार
मोकामा सीट से अनंत सिंह ने फिर एक बार जीत हासिल कर ली। शुरुआत से ही वे लगातार बढ़त बनाए हुए थे। उनके सामने सूरजभान सिंह की पत्नी और आरजेडी उम्मीदवार वीणा देवी थीं, जिन्हें अंत में हार का सामना करना पड़ा।
वीणा देवी ने भी जीत की उम्मीद में अपने घर भोज का इंतज़ाम कर रखा था, लेकिन सब बेकार चला गया। सारे राजनीतिक दावे और चुनावी समीकरण अनंत सिंह के सामने टिक नहीं पाए। छोटे सरकार ने एक बार फिर साबित कर दिया कि मोकामा में अब भी उनका ही दबदबा चलता है।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में मोकामा राज्य की सबसे चर्चित और संवेदनशील सीटों में गिनी जाती है। यह इलाका लंबे समय से बाहुबली नेताओं के रसूख के कारण सुर्खियों में रहता है। इस बार भी चुनाव पूरी तरह दबदबे, जातीय समीकरण और व्यक्तिगत प्रभाव पर ही टिका रहा।
यहां “जात” यानी जाति और “भात” यानी भोजन को आधार बनाकर चुनाव जीतने का पुराना पैटर्न फिर काम कर गया, और अनंत सिंह ने जीत दर्ज कर ली।
विवाद, हिंसा और दबदबे की राजनीति
अनंत सिंह के विरोधी अक्सर कहते हैं कि जब भी उनका चुनाव मुश्किल में पड़ता है या हार का अंदेशा दिखता है, वे हिंसा का सहारा लेते हैं। इससे दो फायदे होते हैं -विरोधी डर जाते हैं..और उनका दबदबा और ‘कल्ट’ बढ़ जाता है।
लोग इस माहौल को साल 2000 के चुनाव से जोड़कर भी याद करते हैं, जब उनके भाई दिलीप सिंह की हार आसन्न देखकर बसावनचक में बच्चू सिंह नाम के व्यक्ति की हत्या कराई गई थी—ऐसा कहा जाता है। उससे उन्हें फायदा तब तो नहीं मिला था, लेकिन बाहुबली छवि जरूर मजबूत हुई।
इस बार भी दुलारचंद यादव की हत्या के आरोप में वे जेल पहुंचे हैं।
मोकामा—गांगेय मैदान का अलग दुनिया जैसा इलाका
‘मोकामा’ नाम ‘मुकाम’ शब्द से निकला है, जिसका मतलब होता है—ठहराव या पड़ाव। गंगा के दक्षिणी किनारे बसा यह छोटा शहर प्रशासनिक रूप से भले पटना जिले में आता हो, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक तौर पर पटना शहर से बिल्कुल अलग अपना स्वतंत्र चरित्र रखता है।
राजधानी से लगभग 100 किलोमीटर दूर यह इलाका पिछले दो दशकों में बाहुबल और राजनीति के अनोखे मेल की वजह से ही सबसे ज्यादा चर्चा में रहा है। मोकामा का नाम आते ही लोगों को अनंत सिंह याद आ जाते हैं।
अनंत सिंह—एक युग, एक छवि
साल 2005 से 2020 तक लगातार चुनाव जीतकर अनंत सिंह ने मोकामा में अपना मजबूत किला खड़ा रखा। 2020 में वे राजद के टिकट पर जीते, लेकिन 2022 में एक आपराधिक केस में सजा होने के बाद उनकी सदस्यता खत्म कर दी गई।
इसके बाद उनकी पत्नी नीलम देवी उपचुनाव में जीतकर विधायक बनीं और बाद में जदयू में शामिल हो गईं। इस बार अनंत सिंह भी जदयू के टिकट पर चुनाव में उतरे, जिससे मुकाबला और भी दिलचस्प हो गया।
दूसरा पावर सेंटर—सूरजभान सिंह का परिवार
मोकामा की राजनीति में सूरजभान सिंह भी बड़ा नाम हैं। उन्होंने 2000 में निर्दलीय चुनाव जीतकर सबको चौंका दिया था और दिलीप सिंह को हराया था। उनके प्रभाव से उनका परिवार भी राजनीति में मजबूत हो गया। इस बार उनकी पत्नी वीणा देवी सीधे अनंत सिंह को चुनौती देने मैदान में उतरीं।
इस तरह यह चुनाव सिर्फ दो उम्मीदवारों का मुकाबला नहीं रहा, बल्कि दो बड़े राजनीतिक घरानों, दो बाहुबली छवियों और वर्षों पुराने प्रभाव की टक्कर बन गया। लेकिन इस बार छोटे सरकार बाजी मार ले गए।
‘छोटे सरकार’ का दरबार—एक अलग ही अंदाज़
अनंत सिंह मूल रूप से बाढ़ के नदवां गांव के रहने वाले हैं।
बाढ़ शहर में उनका अपना मशहूर कारगिल मार्केट है, जिसकी छत पर उनका प्रसिद्ध ‘दरबार’ लगता है। यह दरबार किसी फिल्मी सीन से कम नहीं दिखता – बड़े कमरे में स्प्लिट और विंडो दोनों तरह के AC – बीच में पलंग पर पालथी मारकर बैठे अनंत सिंह
आंखों पर काला चश्माऔर आसपास बैठे चुनिंदा समर्थक मीडिया को लगभग हमेशा यही खास दृश्य देखने को मिलता है। खुद को खुलेआम ‘निरक्षर’ बताने वाले अनंत सिंह सवालों के जवाब बड़ी सादगी और ठसक से देते हैं। मुश्किल सवाल आते ही बीच इंटरव्यू में सिगरेट मांग लेना या किसी नए रिपोर्टर को भदेस अंदाज़ में डांट देना भी उनकी पहचान है।
पिछले दस वर्षों में सोशल मीडिया ने उनकी छवि को और विस्तार दिया है। आज वे सिर्फ नेता नहीं, बल्कि एक पॉप-कल्चर आइकन बन चुके हैं।
जीत तो गई, लेकिन कानूनी रास्ता अभी कठिन है
हालांकि ‘छोटे सरकार’ ने जीत हासिल कर ली है, लेकिन दुलारचंद यादव की हत्या के मामले ने स्थिति पेचीदा कर रखी है। वे अभी भी इसी केस में न्यायिक हिरासत में हैं और पुलिस ने अभी चार्जशीट भी दाखिल नहीं की है। यानी मामला अभी शुरुआती चरण में है।
सबसे बड़ा सवाल यही है -क्या वे जीतने के बाद विधिवत शपथ ले पाएंगे?
कानून कहता है कि
यदि किसी व्यक्ति को अभी अंतिम रूप से सजा नहीं हुई है। और मामला अभी लंबित है..तो अदालत से अनुमति लेकर वह शपथ ले सकता है। लेकिन विधानसभा की कार्यवाही में नियमित भाग लेने के लिए हर बार अदालत से अलग अनुमति लेनी पड़ती है, जो हमेशा मिले यह भी जरूरी नहीं।
कुल मिला कर कहा जा सकता है कि
इस समय स्थिति यह है कि जीत के बाद भी उनका पूरा राजनीतिक भविष्य अदालत और कानूनी प्रक्रियाओं पर निर्भर है। चुनाव जीतना एक बात है, लेकिन सत्ता और जिम्मेदारियों को निभाना पूरी तरह न्यायपालिका की अगली कार्रवाई पर टिका हुआ है।
(त्रिपाठी पारिजात)



