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राष्ट्र-रत्न अहिल्या बाई होलकर ( भाग 1)

अहिल्या की पीड़ा अथाह थी. सुख की छाया खो गई थी. होलकर वंश के विशाल वृक्ष धराशायी हो गए थे..पर इतने वर्षों में इन वृक्षों की छाया तले एक विशाल बरगद पनप चुका था..और उस वटवृक्ष का नाम था–"महारानी साहेब अहिल्या बाई होलकर".


महाराष्ट्र का एक छोटा सा गांव,”होला”..यहां बड़ा हुआ एक नवयुवक सैनिक मल्हार राव..यह युवक अपनी बौद्धिक क्षमताओं, रणनीति, और युद्ध कौशल से पेशवा बाजीराव का सबसे पसंदीदा और विश्वासपात्र साथी बन चुका था.. मालवा के कठिन युद्ध में जब विजय मिली, तब पेशवा ने मालवा की सूबेदारी ही मल्हार राव को सौंप दी.. सन् 1721, होला गांव के बेटे ने सूबेदारी सम्हाली और होलकर राजवंश की नींव पड़ी. समूचा मालवा जैसे तैयारी करने लगा उस भविष्य की, जो मालवा को इसके इतिहास का सबसे अमूल्य रत्न देगा..

13 मई 1725. मालवा की राजधानी इन्दौर से कई मील दूर, चौंडी गांव का एक छोटा किसान मनकोजी. आज इसके घर बिटिया ने जन्म लिया है.. नाम रखा है ’अहिल्या’. पिता के खेतों, गांव की पगडंडियों पर भागती–दौड़ती अहिल्या, जैसे–जैसे बढ़ती गई, बुद्धि, साहस, और करुणा जैसे गुण न जाने कहां से उसके व्यक्तित्व में समाने लगे. नियति अपने सौभाग्य के बीज खुद बो रही थी शायद. गांव में पेशवा बाजीराव, और उनके प्रमुख सूबेदार मल्हार राव के शौर्य की अनेक कहानियां लगातार चर्चा में रहतीं. अहिल्या के बालमन पर इन कहानियों का बड़ा गहरा प्रभाव था. इतना कि सहेलियों के साथ खेलती, तो इन कहानियों की नायिका जैसा अभिनय करती. कभी रानी बन जाती, तो कभी सैनिक. दिन बीत रहे थे. अहिल्या 10 वर्ष की हो चली. उधर मालवा की आँखें बड़ी व्यग्रता से एकटक राह निहार रही थीं..


अभी कुछ दिनों पहले युद्ध से लौटते, मल्हार राव का काफिला एक गांव में विश्राम के लिए रुका. वहां राव ने एक बालिका को देखा. उसकी निश्चलता, साहस और बुद्धिमत्ता मन में बस गई. मालवा लौट कर बेटे के ब्याह की बात रानी से कही..एक छोटे किसान की बेटी राज परिवार में कैसे निभाएगी?? रानी गौतमा बाई की आनाकानी अपनी जगह सही थी. पर राव ने तो अहिल्या को जैसे पुत्रवधू मान ही लिया था..और फिर ? फिर क्या, मंगलगान हुए, विधियां हुईं और मालवा के भावी गौरव ने, महावर लगे पैरों से होलकर वंश में गृहप्रवेश किया..
इन्दौर जगमग कर उठा.. मल्हार राव, बेटे खांडेराव और वधू अहिल्या को बराबरी पर रखते.. दिन में युद्ध कौशल के गुर दोनों साथ सीखते, और फिर राजनीति, कूटनीति, राजकाज की शिक्षा लेते.. रानी साहेब गौतमा, अपनी सुनबाई अहिल्या को राज परिवार के तौर तरीके सिखातीं..मल्हार राव का राज्य हर तरह से फल–फूल रहा था.. होलकर वंश में अगली पीढ़ी, मालेराव (इन्हें कहीं–कहीं भालेराव भी कहा जाता है) और मुक्ताबाई नाम की कड़ियां और जुड़ गईं.. साम्राज्य का विस्तार होता रहा.. युद्ध जीते जाते रहे..
समय बीता, और आया वर्ष 1754. खांडेराव को युद्ध के दौरान धोखा मिला.. तोप के गोले ने खांडेराव के प्राण ले लिए. जवान पुत्र को खोकर पिता टूट गया.. पर सिर्फ 29 साल की अहिल्या वैधव्य धारण किए सामने आती, तो अपना दुःख पीना ही पड़ता. मन पर रखे इस पत्थर को 12 वर्षों तक मल्हार राव ने सहन किया, और 1766 में आखिर उनके प्राण छूट गए..


अहिल्या के बेटे मालेराव, बचपन से कभी भी मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ नहीं थे..लेकिन मालवा के वंशज होने के कारण मालेराव का राज्य अभिषेक हुआ.. अहिल्या बेटे के साथ राजसभा में बैठतीं , महत्वपूर्ण फैसले लेतीं और मालेराव हस्ताक्षर किया करते.. जैसे–जैसे राज्य वापस सुचारू हो रहा था, वैसे–वैसे मालेराव का स्वास्थ्य गिर रहा था..और 10 महीनों में ही मालेराव नहीं रहे. मालवा की राजगद्दी एक बार फिर वीरान हुई. एक के बाद एक अपनों को खोना..अहिल्या की पीड़ा अथाह थी. सुख की छाया खो गई थी. होलकर वंश के विशाल वृक्ष धराशायी हो गए थे..पर इतने वर्षों में इन वृक्षों की छाया तले एक विशाल बरगद पनप चुका था..और उस वटवृक्ष का नाम था–”महारानी साहेब अहिल्या बाई होलकर”. अहिल्या ने अपनी सब पीड़ाओं को बलपूर्वक पीछे धकेला, और 11 दिसंबर 1767 को राज्याभिषेक हुआ इतिहास की सबसे दूरदर्शी रानी का.


भौगोलिक दृष्टिकोण से इन्दौर का दक्षिण भाग, रानी को हमेशा से ज्यादा उपयुक्त लगा करता था. सबसे पहले उन्होंने अपनी राजधानी नर्मदा के किनारे महेश्वर में स्थानांतरित कर ली.. रानी बचपन से ही महादेव की भक्त थीं. राजपाट भगवान शिव को अर्पित कर दिया और खुद प्रतिनिधि के तौर पर राजकाज संभालतीं. राजपत्रों अब “हुजूर शंकर” के नाम से मुहर लगती. राज्य के अन्तिम बिंदु तक महल में बैठ कर नहीं देखा जा सकता, अतः अब रानी खुद अपनी प्रजा के बीच जाने लगीं.. हर रोज़ जनसुनवाई होती. अपनी प्रजा से आत्मीयता और प्रेम, रानी को घंटों उनके बीच बांधे रखता. रानी का संबल हर तरह से प्रजा के लिए उपलब्ध था, और प्रजा अपनी हर छोटी–बड़ी बात रानी से साझा किया करती.
अंग्रेज़ी हुकूमत धीरे–धीरे जड़ें जमा चुकी थी.

उन दिनों का अटल नियम– “यदि कोई स्त्री निःसंतान है, और पति की मृत्यु हो गई, तो पति की सारी संपत्ति सरकारी ख़ज़ाने में जमा करानी पड़ेगी.” अहिल्या बाई ने एड़ी चोटी का ज़ोर लगाया और आख़िर नियम बदले गए. रानी हर तरह की समानता की घोर पक्षधर थीं. स्त्रियों के लिए उन्होंने सामाजिक, और युद्ध शिक्षा के सारे द्वार खोल दिए. हर स्त्री को आत्म–रक्षा और देश–रक्षा के गुर आने अनिवार्य थे. पढ़ी–लिखी, और रण–कौशल में सिद्ध स्त्रियों की भी अब एक विशाल सेना तैयार थी राज्य में.. प्रजा, विशेषकर स्त्रियां अब उन्हें देवी मानने लगी और रानी को “मां” पुकारा जाने लगा..
(क्रमशः)

-आकांक्षा प्रफुल्ल पाण्डेय (मुम्बई)

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