Poetry By डॉ.हरिमोहन सारस्वत ‘रूंख’:”कोहरे में लिपटी बात” काव्य संग्रह पर पढ़िए मेरा रिव्यू..
मुझे तलाश है
मुझे तलाश है बरछी से तीखे
धारदार घातक शब्दों की।”
लेखक ने शब्दों को तलाशा और तराशा। संवेदनाओं से भीगे इन शब्दों को कविताओं का रूप दिया। कविताओं के जरिए जो बात लेखक ने पाठकों के सामने रखी है, वो सच में कोहरे में लिपटी एक सुबह है जिस पर सूरज की धूप पड़ते ही सारा मंजर साफ-साफ नज़र आने लगता है। इस काव्य संग्रह में दर्द है…प्रेम है…जीवन है तो मृत्यु भी है।
कितनी अद्भुत अभिव्यक्ति है यह…
“पानी कसमसाता है
उसे प्यासा थार चाहिए
नदी मुस्कुराती है
उसे बाढ़ में डूबोने के लिए गांव चाहिए।
बेचारा पानी
एक उम्मीद के साथ जीता है
दूसरों की मर्जी का जीवन।”
लेखक का लिखा आंखों के सामने उन घटनाक्रमों को ला देता है जिन्होंने दिल दहला दिया है।
मन सोचने पर विवश हो जाता है कि लेखक ऐसी घटनाओं के भीतर कितना गहरा उतरा होगा कि लिख डाली कविता।
कवि ने लिखा है कि…
“यह भी एक ख़बर हो सकती है
कि आज नहीं है कोई भी ख़बर।
थानों में शांति है
दफ्तर में सन्नाटा है
कोई नेता भी नहीं बहका है
कहीं आग नहीं दहकी है”
एक मासूम मन नजर आया इस कविता की अंतिम पंक्तियों में…
“सन्नाटे और शांति की ख़बर बनाएं
और आज अखबार के
सारे पन्ने खाली छोड़ दें!”
यह कविता पढ़ते-पढ़ते मुझे जयपुर के भांकरोटा हादसे की लपटें नजर आ गई और मन सोचने लगा काश 21 दिसंबर के अखबार के सभी पन्ने खाली होते। कहते है जो हम सोचते है अक्सर वैसा ही घटित होने लगता, तभी तो बड़े कह गये हैं अच्छा- अच्छा बोलो, अच्छा-अच्छा सोचो और पढ़ना? दुखद घटनाओं को हाईलाइट करते अखबार…
सनसनीखेज़ खबर देने को बेताब अखबार…
फिर रद्दी में बिकते अखबार…। खाली ही रह जाये तो अच्छा।
“राजा आएगा!” कविता पढ़ते हुए भी पेपर की सुर्खियों याद हो आई राजा के आने से पहले एक दिन संवरता शहर दूसरे दिन उजड़ता शहर… तस्वीरें पेश की अखबारों ने।सच में जरूरी भी तो है अखबार।
“रंगों का डर” पढ़कर मन घबरा सा गया। क्या इस बार होली अपने विचारों से मेल खाते रंगों से ही मनाये?
“यदि लाल मेरी पसंद है
लोग मुझे कामरेड बताते हैं
नीला मुझे भाता है
तो यकीनन मेरा दलितों से नाता है।
केसरिया पहनते ही मैं हिंदूवादी घोषित हो जाता हूं
हरा बताते ही मुस्लिमों में खो जाता हूं।
काला रंग मुझे सत्ता विरोधी बताता है
गुप्तचर एजेंशियों को
बिना बात मेरा भय सताता है।
और सफेद!
वह तो अब रंग ही नहीं है
क्योंकि शांति से जीने का
हमारे पास ढंग ही नहीं है।”
काश इस फागुन में सब सफेद रंग से रंग जाये।
पर सच कहूं इस संग्रह में कई रंग है जो आपके मन में उतरते जाएंगे। जहां समाज का वीभत्स चेहरा और बिगड़ता लोकतंत्र डरायेगा वहीं प्रेम और उम्मीद से मन फिर भर जाएगा ।
कविताओं के इसी खजाने से
जीने का ढंग…
“तू नदी है!
कभी सूखती
कभी छलकती
बस बहती जा…
यह दुनिया है!
जहरीली रूपसी
चुभती धूप सी
सब सहती जा…
मैं सागर हूं!
पानी में आग सा
सुनने को बेताब सा
कुछ कहती जा..।”
(प्रेमलता)
काव्य संग्रह: “कोहरे में लिपटी बात”
लेखक …डाॅ.हरिमोहन सारस्वत ‘रूंख’
प्रकाशक : Bodhi Prakashan