Friday, August 8, 2025
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Mahakumbh 2025: कुम्भ के बारे में ये है पुराणों में वर्णन

Mahakumbh 2025: शाब्दिक अर्थ लेकर लोग कुम्भ स्नान करके पुण्य कमाने आ जाते हैं। चारों कुम्भ क्षेत्र में तो गंगा जी नहीं हैं, वे सिर्फ प्रयाग क्षेत्र में हैं। असल में कुम्भ का नदियों से कोई लेना देना है ही नहीं। कुम्भ का सीधा संबंध कुम्भ क्षेत्र से है..

 

Mahakumbh 2025:  पुराणों में दी गई कथाओं के तीन अर्थ होते हैं – शाब्दिक, सांसारिक (भौतिक) और आध्यात्मिक (वैज्ञानिक – तत्व ज्ञान)

शाब्दिक अर्थ लेकर लोग कुम्भ स्नान करके पुण्य कमाने आ जाते हैं। चारों कुम्भ क्षेत्र में तो गंगा जी नहीं हैं, वे सिर्फ प्रयाग क्षेत्र में हैं। असल में कुम्भ का नदियों से कोई लेना देना है ही नहीं। कुम्भ का सीधा संबंध कुम्भ क्षेत्र से है।

तीन तरह के बल हैं – अभिकेंद्रीय, अपकेंद्रीय और गुरुत्वाकर्षण बल। यांत्रिकी (machanics) नहीं पढ़ाऊंगा मैं इसलिए संलग्न चित्र से सहायता लें। झूले की सहायता से घूमते हुए व्यक्ति(ऑब्जेक्ट) को पूरी तरह ऊपर की ओर जाने से गुरुत्वाकर्षण बल रोकता है लेकिन एक अदृश्य बल उन्हें झूले के खम्भे से भी टकराने नहीं देता। वो बल ऑब्जेक्ट्स को खम्भे से थोड़ा सा दूर रख के घुमाता है। इस बल को कहते हैं Centrifugal force उर्फ अपकेंद्रीय बल।

हम पृथ्वी के साथ घूम रहे हैं परंतु यदि हम ऐसी जगह चले जाय जहां अपकेंद्रीय बल अधिक हो तो हमारी कुण्डलिनी शक्ति जिसको ऊर्ध्व गति पकड़नी होती है उस ऊर्जा को ऊपर चढ़ने में सहयोग मिल जाता है।

वैसे तो लगभग पूरा भारत ही इस 0 से 33 डिग्री के क्षेत्र में आने से अपकेंद्रीय बल के क्षेत्र में आता है परन्तु भारत में चार स्थानों पर ये सर्वाधिक है – अर्थात हरिद्वार, नासिक, प्रयागराज और उज्जैन में। तो ये चारों जगहें सबसे अच्छी तपस्थली हैं। कभी भी इन स्थानों पर जाकर आप तप कर सकते हैं जिससे आप को शीघ्र ही तप का फल प्राप्त होने लगता है। ये हुआ कुम्भ क्षेत्र का महत्व।

अब आते हैं 12 बरस के रहस्य पर

ज्योतिष में बृहस्पति को ही प्राण कहते हैं। इसको एक राशि का भ्रमण करने में एक बरस लगता है। कुल 12 राशियों के भ्रमण में पूरा 12 बरस लगते हैं। इसलिए हर 12वीं बरस में कुम्भ होता है। अब समस्या ये है कि बृहस्पति कई बार वक्री होते हैं और इस बार 2025 में बृहस्पति तीन बार गोचर करने वाले हैं जबकि इनका गोचर एक बरस में एक बार ही होना चाहिए.

अतएव, कुंभ तो 12 बरस बाद ही पड़ता है परन्तु सदैव बृहस्पति 12 बरस बाद एक ही राशि में आ जाते हों ऐसा संभव नहीं रहता। तो बृहस्पति के हर तरह के गोचर से अधिकतम 4 कंडीशन बनती हैं इसलिए भी हमारे पास कुम्भ क्षेत्र के लिए चार स्थान हैं।

अब जबकि हमें ये पता है कि बृहस्पति एक राशि में एक बरस रहते हैं तब 45-50 दिन का कुंभ किस हिसाब से मनाया जाता है?

ज्योतिष में बृहस्पति को प्राण माना गया है। आप आत्मा समझ लो। इसी तरह सूर्य को परमात्मा माना गया है। इस शरीर में प्राणों(आत्मा) का स्थान हृदय है। जैसे शरीर का ईंधन हमारा भोजन है ऐसे ही प्राणों का ईंधन प्राणवायु अथवा श्वसन है। तो सनातन की सर्वोच्च अवस्था है – आत्मा का परमात्मा से मिलन अर्थात बृहस्पति का सूर्य से मिलन अथवा आपकी कुण्डलिनी शक्ति का उर्ध्वगामी होकर सहस्त्रचक्र पर शिव शक्ति का मिलन।

अतएव, सूर्य और बृहस्पति के संबंध के हिसाब से स्थान और समय का चुनाव होता है चूंकि सूर्य एक राशि में लगभग 30 दिन रहते हैं तथा दो राशियों के संधि क्षेत्रों में सूर्य के भ्रमण को मिलाकर 40-50 दिन बनते हैं।

*जब बृहस्पति वृषभ राशि में और सूर्य मकर राशि में होता है, तब कुंभ मेला प्रयागराज में लगता है.
*जब सूर्य मेष राशि में और बृहस्पति कुंभ राशि में होता है, तब कुंभ मेला हरिद्वार में लगता है.
*जब सूर्य और बृहस्पति सिंह राशि में होते हैं, तब कुंभ मेला नासिक में लगता है.
*जब सूर्य मेष राशि में और बृहस्पति सिंह राशि में होता है, तब कुंभ मेला उज्जैन में लगता है.

आप कहेंगे कि मैने कोरी गप लिख दी। इसका रहस्य गीता में है –

अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।4.29।।
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।4.30।

इन श्लोकों में प्राणायाम की विधि लिखी है। प्राण का स्थान हृदय (ऊपर) तथा अपान का स्थान गुदा (नीचे) है। इन श्लोकों की विवेचना फिर कभी। बस इतना समझ लीजिए कि पूरक, कुंभक, रेचन अथवा अपान वायु में प्राण वायु का हवन करने से आध्यात्म की सर्वोच्च्य स्थिति प्राप्त हो जाती है।

यहां बात इतनी ही समझानी है कि बृहस्पति और सूर्य के योग से दैवीय ऊर्जा का कुंभ क्षेत्रों पर प्रवाह वो वजह बनता है जिससे कम मेहनत में आध्यात्म की सर्वोच्च्य स्थिति प्राप्त हो जाती है – इस दैवीय योग में गीता के अनुसार बताए गए हवन करके।

इस जटिल गणित को functional abstraction करके जयंत की कहानी का अमृत बता दिया गया।

आप फोन करते हैं लेकिन आपको इससे कोई मतलब नहीं होता कि वॉइस का सिग्नल कैसे बनेगा फिर सिग्नल का एनलॉग टू डिजिटल और डिजिटल टू एनालॉग कैसे बनेगा, कौन कौन से टावर से सिग्नल जायेगा, shortest path algo कब, कहां और कैसे लगेगी, दूसरे के फोन के एड्रेस पे सिग्नल कैसे पहुंचेगा, आदि इत्यादि …

अब कुंभ के नाम पर इंद्र देव के पुत्र जयंत की कहानी ही क्यों गढ़ी गई?

बृहस्पति ग्रह की स्थिति/पोजीशन के हिसाब से ब्रह्माण्ड की ऊर्जा का केंद्र बदलता रहता है जिसका हमारे प्राणों से सीधा संबंध है। बल्कि ज्योतिष में बृहस्पति को ही प्राण कहते हैं। तप में हम अपनी प्राण वायु को ब्रह्माण्ड की दैवीय ऊर्जा से मिला देते हैं। पानी की बूंद सागर में मिलकर अस्तित्व विहीन हो जाती है, वो सागर बन जाती है।

एक बूंद को तो कोई भी पी जाएगा परन्तु सागर को अगस्त मुनि के सिवा कोई दूसरा नहीं पी पाया। तो कुंभ क्षेत्र में बैठ के जब समुद्र मंथन या प्राणों का हवन करोगे तो अमृत का कलश भले न मिले परंतु अमृत की एक दो बूंद अवश्य मिल जाएंगी अर्थात आपका कल्प पूरा हो या न हो परन्तु आपको मार्ग मिल जायेगा अपनी क्रिया का।

अब ये बताओ कि कितने लोग प्रयाग में हवन करने की नीयत से गए? उल्टा जो कल्प वास कर रहे हैं उनके स्नान आदि जो क्रिया है उसमें बाधा बन रहे हैं। अरे आप वहां श्रद्धा भाव से बैठ के निर्धारित तिथियों में संतों की क्रिया देखो और वानप्रस्थ या संन्यास की तैयारी करो।

संतों को उनकी क्रिया पूर्ण करने में सहयोग कर सको तो करो लेकिन उनके लिए बाधा तो मत बनो। संतों का मार्ग रोक के कह रहे हो कि हमने रात्रि में ही रुमाल रख दिया तो पहले हम स्नान करेंगे

इससे आपको कौन सा अमृत मिल जायेगा?

और यदि आप संत नहीं हैं तो पर्व स्नान से आपका ज्यादा कुछ लेना देना नहीं बल्कि वो संतों की क्रिया विधि का हिस्सा है। संतों को पहले अपनी क्रिया विधि कर लेने दो, पीछे आप उनका अनुशरण करो। यहां लोग VIP व्यवस्था पर ज्ञान बांच रहे हैं और वहां प्रशासन पूरी कोशिश कर के भी संतों की क्रिया नियत समय पर नहीं बना पाया।

आस्था बहुत आवश्यक है लेकिन समझदारी उससे अधिक आवश्यक है। आप अपनी आस्था के चक्कर में संतों के लिए बाधा मत बनो। नागा संन्यासी अगले 12 बरस तक अपने अज्ञातवास पर फिर चले जाएंगे। उनकी क्रिया तो बन जाने दो। हर हर महादेव !

(आचार्य अनिल वत्स)

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