(POETRY)
विधि, तूने क्यों दुनिया ही रची?
विधना! तूने क्यों नारी रची?
असुरों का है साम्राज्य यहां,
देवों का है अब नाम कहां ?
पद दलित हो रही अमर पुरी ,
प्रति पल लुटती है यहां शची ।
कहीं दुर्गा है कहीं कल्याणी ,
होती केवल मुखरित बाणी ।
जीना प्रति क्षण हो रहा कठिन,
रे निशा- दिवस है लूट मची।
बेची जाती बाजारों में,
झोंकी जाती अंगारों में।
कितना बतलाऊं व्यथा कथा ?
मासूम कली तक नहीं बची ।
मानव अब रहा नहीं मानव
है नाच रहा बन कर दानव ।
कोसूं निज को या तुम्हें कहूं।
विधि! तूने क्यों दुनिया ही रची!
(कालिंदी त्रिवेदी)