Acharya Anil Vats की इस प्रस्तुति में पढ़िये शरीर के निर्माण करने वाले पांच तत्वों से जुड़ी तन्मात्रा का रहस्य..
आकाश तत्व की तन्मात्रा ‘शब्द’ है। वह कान द्वारा हमें अनुभव होता है। कान भी आकाश तत्व की प्रधानता वाली इन्द्रिय हैं। इसी प्रकार वायु की तन्मात्रा ‘स्पर्श’ का ज्ञान त्वचा को होता है।
त्वचा में फैले हुए ज्ञान तन्तु दूसरी वस्तुओं का ताप, भार, घनत्व उसके स्पर्श की प्रतिक्रिया का अनुभव कराते हैं। अग्नि तत्व की तन्मात्रा ‘रूप’ है।
यह अग्नि- प्रधान इन्द्रिय नेत्र द्वारा अनुभव किया जाता है। रूप को आँखें देखती हैं। जल तत्व की तन्मात्रा ‘रस’ है। रस का जल-प्रधान इन्द्रिय जिह्वा द्वारा अनुभव होता है।
षटरसों का खट्टे, मीठे, खारी, तीखे, कड़ुवे, कसैले का स्वाद जीभ पहचानती है। पृथ्वी तत्व की तमन्मात्रा ‘गन्ध’ को पृथ्वी गुण प्रधान नासिका इन्द्रिय मालूम करती है।
पंच ज्ञानेन्द्रियों के पाँच प्रकार की पंच तन्मात्राओं की साधनायें इस प्रकार हैं ।
1-शब्द साधना- आकाश तत्व
2-स्पर्श साधना- वायु तत्व
3- रूप साधना- अग्नि तत्व
4-रस साधना – जल तत्व
5-गंध साधना- पृथ्वी तत्व
आज हम आकाश तत्व की शब्द साधना का वर्णन करेंगे शब्द साधना के लिए एकान्त स्थान में जाइये जहाँ किसी प्रकार शब्द या कोलाहल न होते हों।
रात्रि को जब शांति हो जाती हो तब साधना के लिए बड़ा अच्छा अवसर मिलता है। दिन में करना हो तो कमरे के किवाड़ बन्द कर लेना चाहिए ताकि बाहर से शब्द भीतर न आवें।
शांत चित्त से पद्मासन लगाकर बैठिये। नेत्र बन्द कर लीजिए। एक छोटी घड़ी कान के पास ले जाइये और उसक टिक-टिक की ध्यानपूर्वक सुनिये।
अब धीरे-धीरे घड़ी को कान से दूर हटाए, और ध्यान देकर उसकी टिक-टिक को सुनने का प्रयत्न कीजिए। घड़ी और कान की दूरी को बढ़ाते जाइये।
धीरे धीरे अभ्यास से घड़ी बहुत दूर रखी होने पर भी टिक-टिक कान में आती रहेगी। बीच में जब ध्वनि प्रभाव शिथिल हो जाय, तो घड़ी कान के पास लगाकर कुछ देर तक उस ध्वनि को अच्छी तरह सुन लेना चाहिए ।
फिर दूर हटा कर कर्णेन्द्रिय से उस शब्द प्रवाह को सुनने का प्रयत्न करना चाहिए। घड़ियाल में एक चोट मारकर, उसकी आवाज को बहुत देर तक सुनते रहना ।
और फिर बहुत देर तक उसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय से सुनने का प्रयत्न करना। जब पूर्व ध्यान शिथिल हो जाय। तो फिर घड़ियाल में हथौड़ी मारकर, फिर उस ध्यान को ताजा कर लेना।
इसी साधना का ‘मुष्टि योग’ नाम से योग ग्रन्थों में वर्णन है। किसी झरने के निकट या नहर के निकट जाइये जहाँ प्रपात का शब्द हो रहा हो। इस शब्द प्रवाह को कुछ देर सुनते रहिए।
फिर कानों को उँगली डालकर बन्द करे और सूक्ष्म कणन्द्रिय द्वारा उस ध्वनि को सुनिये। बीच में जब शब्द शिथिल हो जाय तो उँगली ढीली करके उसे सुनिये ।
और कान बन्द करके फिर उसी प्रकार ध्यान द्वारा ध्वनि ग्रहण कीजिए। शब्द साधना में लगे रहने से मन एकाग्र होता है। साथ ही सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय जाग्रत होती है।
जिनके कारण दूर बैठकर बात करने वाले लोगों के शब्द सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आ जाते हैं। आगे चलकर यही साधना ‘कर्ण पिशाचिनी’ सिद्धि के रूप में प्रकट होती है।
कहाँ क्या हो रहा है, किसके मन में क्या विचार उठ रहा है, किसकी वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणियाँ क्या-क्या कर रही हैं । भविष्य में क्या होने वाला है ?
आदि बातों को कोई शक्ति सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय में आकर इस प्रकार कह जाती है मानो कोई अदृश्य प्राणी कान पर मुँह रखकर सारी बात कह रहा है।
(प्रस्तुति – आचार्य अनिल वत्स)