(Acharya Anil Vats presentation)
पार्वती को भगवान शिव की प्राप्ति के लिए तप करने का आदेश मिलता है। क्योंकि श्रद्धा तभी सार्थक होती है जब उसमें तप की अग्नि हो। यदि बुद्धि में भोग और वासना की तरंगे हों, तो श्रद्धा शुद्ध नहीं रह सकती। इसी कारण पार्वती धीरे-धीरे सभी भौतिक सुखों का त्याग कर देती हैं।
उधर शिव योग में लीन हैं, सती के देह त्याग के बाद वे बाहरी दुनिया से कट जाते हैं। वे आत्मसंपन्न हैं, उन्हें किसी चीज़ की अपेक्षा नहीं है। लेकिन संसार को उनकी आवश्यकता है। श्रद्धा के बिना विश्वास निष्क्रिय हो जाता है। और श्रद्धा की अनुपस्थिति में विश्वास में सृजन की प्रेरणा नहीं उत्पन्न हो सकती।
इस समय संसार संकट में है—तारकासुर ने समस्त देवताओं को परास्त कर दिया है और देवगण सुख-संपत्ति से विहीन हो चुके हैं।
“तारक असुर भयउ तेहि काला।
भुज प्रताप बल तेज विशाला।।
ते सब देव लोक पति जीते।
भए देव सुख संपति रीते।।”
यह “तारकासुर” दरअसल उस संशय और अनास्था का प्रतीक है जो व्यक्ति और समाज की आस्था को खा जाती है। देवता उन सद्गुणों के प्रतीक हैं जिनसे व्यक्ति को सुख और उन्नति मिलती है। लेकिन जब सन्देह इन गुणों पर हावी हो जाता है, तो जीवन की ऊर्जा और मूल्य खो जाते हैं।
ऐसी स्थिति में श्रद्धा और विश्वास का तेज ही संशय रूपी तारकासुर का अंत कर सकता है।
ब्रह्मा, जो समष्टि-बुद्धि के प्रतीक हैं, प्रेरित होते हैं कि शिव-पार्वती का मिलन हो। पर यह कैसे हो? उपाय एक ही है—कामदेव की प्रेरणा। क्योंकि बिना इच्छा के कोई सृजन संभव नहीं।
लेकिन यहाँ एक गहरा प्रश्न उठता है—जिस श्रद्धा और विश्वास के मूल में काम होगा, क्या वह टिकाऊ होगा? क्या उसमें स्थायित्व होगा?
मानस इस सवाल का मार्मिक उत्तर देता है—बाह्य रूप से कामदेव अपने प्रयास में सफल होते दिखते हैं, लेकिन कथा यह भी बताती है कि शिव पहले ही भगवान राम की प्रेरणा से पार्वती को स्वीकार कर चुके होते हैं।
“कह शिव जदपि उचित अस नाहीं।
नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं।।”
यहां राम पार्वती के पवित्र चरित्र का उल्लेख करते हैं और शिव उसे प्रभु की आज्ञा मानकर स्वीकार करते हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि श्रद्धा और विश्वास का वास्तविक मिलन “काम” की प्रेरणा से नहीं, “राम” की प्रेरणा से संभव है।
विश्वास, काम का विरोधी है। शिव स्वयं कामारि हैं—उन्होंने कामदेव का दहन किया है। भक्ति में जो श्रद्धा चाहिए, वह काम-प्रेरित नहीं हो सकती।
काम क्षणिक होता है—जैसे उसकी तीव्रता है, वैसे ही उसका अंत भी निश्चित है। उस पर आधारित विश्वास भी अस्थिर होता है। समाज में हम अक्सर स्वार्थवश ‘विश्वासी’ बनने का अभिनय करते हैं। लेकिन जब हमारी कामनाएँ पूरी नहीं होतीं या जब नई कामनाएँ जन्म लेती हैं, तो विश्वास डगमगाने लगता है।
ऐसा विश्वास टिकता नहीं है, टूटता है। मानस हमें सिखाता है कि सच्चा विश्वास राम प्रेरित होता है, काम प्रेरित नहीं।
तो फिर काम की भूमिका क्या है?
क्या ब्रह्मा ने व्यर्थ ही उसे प्रेरित किया? नहीं। ब्रह्मा सृजन के देवता हैं और काम उनके प्रमुख उपकरणों में से एक है। सृजन के लिए मिलन आवश्यक है, और मिलन की प्रेरणा काम देता है। विवाह संस्कारों में भी काम की महिमा गाई जाती है।
शिव-पार्वती के विवाह में अंततः काम की भूमिका तो है, लेकिन एक परिवर्तित, मर्यादित रूप में।
काम, जहाँ सृजन का महान कारण है, वहीं आवेग में मर्यादा भी तोड़ता है। ब्रह्मा स्वयं भी इस आवेग से अछूते नहीं रहते। अतः इस अवसर पर एक समन्वय की आवश्यकता थी—जहाँ काम को एक उच्चतर उद्देश्य में ढाला जा सके।
काम और विश्वास का यह संघर्ष अंततः लोकमंगल का कारण बनता है।
इससे जहाँ विश्वास की निष्क्रियता समाप्त होती है, वहीं काम को एक नया, सृजनशील रूप मिलता है।
इसलिए ब्रह्मा का यह प्रयास पूर्णतः सुनियोजित और सार्थक था। जय जय सियाराम !