Devendra Sikarwar का ये लेख बताता है कि हिन्दुओं का मानसिक पराभव अब उनके अस्तित्व पर संकट बन रहा है..
भारत में अक्सर हिंदुओं के पराभव और इस्लामिक विस्तार पर चर्चाएं तो की जाती हैं लेकिन उसका मूल कारण नहीं ढूंढ़ पाते।
जातियों के सामूहिक चरित्र एक या दो वर्षों में नहीं बनते बल्कि उसमें सहस्त्राब्दियों का समय लगता है।
-यहूदियों की सर्वाइवलशिप का राज उनके गहन विश्वास ‘चोजन पीपुल ऑफ गॉड’ में है, जिसने उन्हें अमरता के प्रति आश्वास्त किया हुआ है।
-पश्चिम की तकनीकी श्रेष्ठता का राज उनकी कठोर जलवायु में है जिसके कारण इन्नोवेशन और एक्सप्लोरेशन की आदत ने उन्हें तकनीकी रूप से श्रेष्ठ बनाया है।
-चीनियों का विश्वास ‘हान’ जाति की श्रेष्ठता और पूरे विश्व को चीन केंद्रित बनाने की भावना में निहित है।
-इस्लामिक समाज का चरम विश्वास मृत्यु के बाद जन्नत पाने की होड़ में है जिसने उन्हें यहूदियों की भांति ‘अमरता’ और ‘श्रेष्ठताबोध’ से भर रखा है।
हिंदुओं का चरम विश्वास आत्मा की अनश्वरता और पुनर्जन्म में था।
पश्चिम ने, चीन ने, यहूदियों ने और मुस्लिमों ने अपने जातीय विश्वास को बनाये रखा है लेकिन हिंदुओं ने अपनी सभ्यता के मूल विश्वास को छोड़ दिया है।
एक टी वी सीरिज ‘रोम’ में एक हिंदू व्यापारी को रोमन सैनिक बंदी बना लेते हैं और उन्हें मारने को उद्यत हैं लेकिन उसे शांत देखकर रोमन सैनिक पूछता है, तुम्हें मृत्यु का भय नहीं है?
और तब वह व्यापारी गीता के अमर श्लोक ‘वासाँसि जीर्णानि यथा विहाय’ को अपने शब्दों में बोलता है–‘तुम सिर्फ मेरे शरीर को मार सकते हो आत्मा को नहीं, जो मृत्यु के बाद फिर नया शरीर धारण कर लेगी।’
इसे धारणा के दम पर हिंदुओं ने फिलिपीँस से पुर्तगाल तक हिंदू संस्कृति का विस्तार किया था।
यही वो विश्वास था जिसने खुदीराम बोस, भगतसिंह व बिस्मिल पैदा किये जो गाते थे, “नौ महीने बाद फिर लौटूँगा।”
यही वह भावना थी जिसके बल पर ब्राह्मणों ने सैन्य विजेता मुस्लिमों को ‘मलेच्छ’ अर्थात ‘टट्टीवत’ कहकर ऐसा भयानक तिरस्कार किया था कि हिंदुओं में सबसे कमजोर वर्ग ‘भंगी’ भी मुस्लिमों का छुआ पानी पीने से घृणा करता था।
यही हिंदू जाति की शक्ति का केंद्र था, जिसपर आधी चोट बुद्ध ने की,’आत्मा के अस्तित्व को नकारकर।
बाकी की आधी चोट विज्ञान की अधूरी समझ ने कर दी कि पुनर्जन्म का कोई अस्तित्व नहीं है जबकि विज्ञान ने सिर्फ इतना कहा था कि पुनर्जन्म को कोई प्रमाण अभी तक प्रायोगिक रुप से नहीं मिला है।
लेकिन हिंदू विरोधियों व काले अंग्रेजों ने बोलना शुरू कर दिया कि पुनर्जन्म संभव ही नहीं है।
इस अधकचरी आवधारणा के कारण एक नारा उभरा, “खायो पियो मौज करो, मौत के बाद क्या पता कि क्या होता है।”
इस दूषित हिंदू अवधारणा ने हिंदुओं में न केवल पापबोध को क्षीण कर उन्हें अनैतिक बना दिया बल्कि कृष्ण के कर्म सिद्धांत को भी भुला दिया।
यही कारण है कि आम हिंदू अनैतिक होते जा रहे हैं और पुनर्जन्म व कर्मफल में विश्वास न होने के कारण उन्हें कायर भी बना दिया है।
अब वे चुनौती मिलने पर संघर्ष नहीं करते बल्कि पलायन को प्राथमिकता देते हैं ताकि तिरस्कृत ही सही जीवन का भोग कर सकें।
हिंदू व्यर्थ के पाखंड छोड़कर जब तक कृष्ण के कर्म सिद्धांत व पुनर्जन्म की ओर दृढ़ता के साथ विश्वास की ओर नहीं लौटेगा, उसका पालयन व विलुप्तकरण बढ़ता चला जायेगा।
ईरान का पारसी धर्म, बेबीलोन के असुर, नोर्वे का नोर्स धर्म, ऐसे ही विलुप्त नहीं हुए।
पहले उनके मंदिर व मूर्तियां तोड़कर विश्वास कमजोर किया गया और फिर उन्हें मिटा दिया गया।
जो कार्य हजार वर्ष के अत्याचार से भी नहीं कर पाया वह कार्य उपभोक्तावाद व और ‘सर्वधर्मसमभाव के खोखले नारों ने पिछले पचास वर्ष में कर दिखाया।
सोचकर देखिये जब तक हमारे पूर्वज मुगलों की संतानों का छुआ पानी भी न पीते थे वहीं अब्बास की मटन बिरियानी और उसको अपने चौके तक ले जाने के प्रक्रम ने उन्हें हिंदुओं की बेटियों के ब्लाउजों तक पहुँचा दिया और हिंदुओं को उनके घरों से निष्कासित करवा दिया।
जब तक कर्मफल व पुनर्जन्म में ह्रदय से विश्वास नहीं रखोगे और जब तक नौकरी खोने और पैसे के घाटे की कीमत पर भी उनके मुँह पर खुले आम यह कहने की ताकत नहीं रखोगे कि हिंदुत्व संसार का श्रेष्ठतम धर्म है और तुम मलेच्छ हो, तब तक हिंदुओं में न तो लड़ने का माद्दा पैदा होगा और न उनका मुस्लिम बहुल इलाकों से पलायन रुकेगा, बस सरकार को दोष देते रहोगे।
(देवेंद्र सिकरवार)