Tuesday, October 21, 2025
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Breaking: अमेरिका का ‘#Defacto President’ या #DeepState की चाल? नीरा टंडन, ऑटोपेन और व्हाइट हाउस के पर्दे के पीछे का खेल

Breaking: ये है वो #सनसनीखेज खबर जिसका पता अमेरिका और भारत दोनो देशों के देशभक्तों को होना चाहिये..क्योंकि देश के गद्दारों को तो पता ही है..

Breaking: ये है वो #सनसनीखेज खबर जिसका पता अमेरिका और भारत दोनो देशों के देशभक्तों को होना चाहिये..क्योंकि देश के गद्दारों को तो पता ही है..

हर भारतीय अमेरिकी #डॉक्टर या #आईटी में ही नहीं होता—कुछ ऐसे भी हैं, जिनका नाम अमेरिकी सत्ता के सबसे गहरे गलियारों में गूंजता है।

मिलिए नीरा टंडन से, जिनका नाम अब #अमेरिका के सबसे बड़े राजनीतिक रहस्यों में शुमार हो गया है। हाल ही में अमेरिकी #कांग्रेस के सामने बंद दरवाजों के पीछे हुई गवाही में नीरा टंडन ने स्वीकार किया कि वे #राष्ट्रपति जो बाइडेन के लिए ऑटोपेन (#Autopen) का इस्तेमाल कर दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करती थीं। वे सिर्फ गवाह नहीं थीं—वे इस पूरी प्रक्रिया की प्रभारी थीं। कई मामलों में, राष्ट्रपति के नाम पर कानूनों और कार्यकारी आदेशों पर वही हस्ताक्षर कर रही थीं।

ऑटोपेन बोले तो एक #इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस है, जिसका इस्तेमाल किसी व्यक्ति के हस्ताक्षर की हूबहू नकल करके दस्तावेजों पर ऑटोमेटिकली हस्ताक्षर करने के लिए किया जाता है। यह #डिवाइस पहले असली हस्ताक्षर को रिकॉर्ड करती है, फिर जरूरत के अनुसार कागज या दस्तावेज़ पर वही हस्ताक्षर दोहराती है।

#राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री, या किसी बड़े अधिकारी के पास रोज़ाना सैकड़ों दस्तावेज़ हस्ताक्षर के लिए आते हैं। ऐसे में वे हर दस्तावेज़ पर खुद हस्ताक्षर करने के बजाय ऑटोपेन का इस्तेमाल कर सकते हैं।

इससे समय की बचत होती है और काम जल्दी निपट जाता है।ऑटोपेन से किए गए #हस्ताक्षर कानूनी रूप से मान्य माने जाते हैं, बशर्ते इसकी अनुमति दी गयी हो।

नीरा टंडन ने अपनी गवाही में माना कि उन्हें ऑटोपेन से दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करने की अनुमति थी, लेकिन वे खुद नहीं जानती थीं कि अंतिम मंजूरी किसकी होती थी।

वे केवल “डिसीजन मेमो” भेजती थीं, और मंजूरी के बाद दस्तावेज़ पर ऑटोपेन चला देती थीं। उन्होंने स्वीकार किया कि #बाइडेन से उनकी सीधी बातचीत बहुत कम थी, और वे नहीं जानती थीं कि हर आदेश में बाइडेन की व्यक्तिगत सहमति होती थी या नहीं।

नीरा टंडन, #CAP (Centre for American Progress) जैसी वामपंथी थिंक टैंक की प्रमुख रही हैं, और उन्होंने नीतियों का ऐसा ढांचा तैयार किया जिससे पसंदीदा एनजीओ को संघीय धन पर असाधारण नियंत्रण मिला। उन्होंने न सिर्फ नीति बनाई, बल्कि उन्हीं दस्तावेज़ों पर ऑटोपेन से हस्ताक्षर भी किए, जिनसे उनके सहयोगी लाभान्वित हुए। यानी नीति निर्माण, मंजूरी और क्रियान्वयन—सारा नियंत्रण एक ही नेटवर्क के हाथ में था।

अब तक की गवाही से स्पष्ट नहीं हुआ है कि बाइडेन हर फैसले में व्यक्तिगत रूप से शामिल थे या नहीं। नीरा टंडन समेत कई वरिष्ठ अधिकारी भी यह नहीं जानते थे कि अंतिम निर्णय कौन ले रहा था।

यह सवाल अब अमेरिकी राजनीति में गूंज रहा है—क्या बाइडेन के नाम पर फैसले लेने वाले असली लोग पर्दे के पीछे थे?
नीरा टंडन की गवाही और ऑटोपेन के इस्तेमाल से यह आशंका और गहरा गई है कि कोई छुपा हुआ तंत्र (डीप स्टेट) अमेरिकी नीतियों और अरबों डॉलर के फंड के प्रवाह को नियंत्रित कर रहा था।

हालांकि यह माना जाता है कि बाइडेन का शासन पर्दे के पीछे से #बराक ओबामा चला रहे थे… और कहा तो यहां तक जाता है कि अमेरिकी डीप स्टेट का सरगना बराक ओबामा ही हैं #जॉर्ज सोरेस तो मुखौटा मात्र है।

भारत में भी #मनमोहन सिंह के शासन के दौरान नेशनल एडवाइजरी काउंसिल जिसकी #चेयरपर्सन श्रीमती #सोनिया गांधी थीं, ने भी नीति निर्माण और फंडिंग में असाधारण प्रभाव डाला था—

तो अब सवाल उठता है कि क्या पर्दे के पीछे से #NAC भी मनमोहन सिंह के हस्ताक्षर तमाम दस्तावेजों पर ऑटोपेन से करके सारे निर्णय करती थी जो सरदार जी को पता भी नहीं होते थे —
और 2014 में क्या वही ‘प्लेबुक’ अमेरिका में लागू हुई

उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार, विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी को जो हज़ारों करोड़ के लोन दिए गए, वे मुख्य रूप से 2004 से 2014 के बीच (#यूपीए सरकार/मनमोहन सिंह के कार्यकाल में) स्वीकृत हुए थे।

#UPA काल में राजनैतिक दबाव और “कनेक्शन” के आधार पर कई बड़े लोन स्वीकृत हुए—जैसा कि बैंकिंग अधिकारियों ने भी माना है।

पूर्व #आरबीआई गवर्नर दुव्वुरी सुब्बाराव ने अपनी किताब ‘Who Moved My Interest Rate’ और ‘Just A Mercenary?: Notes from My Life and Career’ में भी इसका जिक्र किया है।

क्या नरसिम्हा राव के शव तक को इसी लिये अपमानित किया गया क्यूंकि उन्होंने राजमाता के इच्छानुसार ऑटोपेन का इस्तेमाल नहीं होने दिया।

क्या अमेरिका और भारत की जनता कभी सच जान पाएगी, या फिर यह रहस्य हमेशा के लिए फाइलों में दफन रहेगा?

(मनोज कुमार)

 

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