Hindi Cinema- Ankur: अंकुर जैसी फिल्मों के कारण हिंदी सिनेमा अमर है. श्याम बेनेगल की फिल्म अंकुर को आप कैसे भूल सकते हैं ! हिंदी फिल्मों की वो क्लासिक फिल्मे. जो हर युग में ताज़ा हैं आज भी उतनी ही खूबसूरत भी हैं. ‘अंकुर’ के आख़िरी दृश्य में… शबाना आज़मी का बेटा उस क्रूर सामंत को ढेला मारता है… जिसने उसकी माँ के साथ क्रूरता की है..
यहीं पर फ़िल्म ख़त्म हो जाती है… यह एक नयी क्रांति का सूत्रपात था…आक्रोश की धधकती…जलती हुई पहली मशाल…!
दिलचस्प है कि सत्यजीत रे ने बेनेगल की इस फ़िल्म पर लिखते हुए इसके अंत की लगभग आलोचना की है…वे लिखते हैं कि ” अंत में बच्चा जो ढेला मारता है… वह कलात्मक नहीं है… वह नहीं होता तो फ़िल्म ज़्यादा महत्वपूर्ण होती…”
लेकिन यही आख़िरी दृश्य तो नक्सलवाद की परंपरा से फ़िल्म को एक ख़ास अर्थ में जोड़ता है…हालाँकि यह फ़िल्म नक्सलवादी आन्दोलन के पहले भी बन सकती थी…वैसे भी ‘अंकुर’ नक्सल आन्दोलन से सीधे प्रभावित थी…
नक्सलबाड़ी आन्दोलन के बाद…सबसे बड़ा नाम ‘श्याम बेनेगल’ और ‘गोविन्द निहलानी’ का आता है… बेनेगल ने 1974 में ‘अंकुर’ बनाई…जिसकी सिनेमेटोग्राफी ‘गोविन्द निहलानी’ ने की थी…
अच्छी…सार्थक…अर्थवान फ़िल्में नक्सलवादी आन्दोलन के पहले भी बनी हैं… लेकिन जो सबसे बड़ा फ़र्क आ जाता है वह यह कि ‘बेनेगल’ की फ़िल्में किसी दुर्लभ स्वप्न के आरंभ की मानिंद एक ख़ास अर्थ ओर जा रही थीं…
जिसमें दूर तक सुनाई देती हुई एक सिसकी थी…पीड़ा थी…और एक आदमज़ात अफ़सुर्दगी थी… जो समय और सच की सेंध से धूप की तरह रिस रही थी…!
नमन् उन्हें………!!!
-राहुल झा
इसे भी पढ़ें: Smita Patil: हिंदी सिनेमा का एक संवलाया हुआ चेहरा जिसमें था आत्मघाती आकर्षण – स्मिता