Indian Justice History: केरल का अनोखा ‘जज मंदिर’ साक्षी है एक गलत फैसले के प्रायश्चित का -जानिये आत्मदंड से देवत्व तक—त्रावणकोर के न्यायाधीश गोविंद पिल्लै की 200 साल पुरानी कथा..
भारत की परंपरागत शासन व्यवस्था में न्याय को सर्वोच्च नैतिक मूल्य माना गया है। प्राचीन भारतीय रियासतों में न्याय व्यवस्था के लिए अलग प्रशासनिक ढांचा मौजूद रहता था, जिसके प्रमुखों को समाज में विशेष सम्मान और अधिकार प्राप्त थे। न्याय के प्रति कठोर निष्ठा और निष्पक्षता को आदर्श माना जाता था। केरल की भूमि पर न्यायप्रियता की इसी विरासत से जुड़ी एक असाधारण और भावुक कथा आज भी लोगों को चकित करती है।
करीब दो शताब्दी पूर्व त्रावणकोर रियासत में एक ऐसे न्यायाधीश हुए, जिनका नाम इतिहास में कठोर आत्मदंड और नैतिक साहस के प्रतीक के रूप में दर्ज है। गोविंद पिल्लै नामक इस जज ने अपने जीवन के सबसे बड़े निर्णय की कीमत स्वयं अपने प्राण देकर चुकाई। आज वही न्यायाधीश केरल में देवतुल्य माने जाते हैं और उनके नाम से जुड़ा मंदिर श्रद्धा का केंद्र बन चुका है।
भारत में जहां असंख्य देवी-देवताओं की पूजा होती है, वहीं केरल के कोट्टायम जिले में स्थित चेरुवल्ली देवी मंदिर एक अनोखी परंपरा के लिए प्रसिद्ध है। यहां किसी पौराणिक देवता की नहीं, बल्कि 18वीं सदी में जीवित रहे एक वास्तविक न्यायाधीश की आराधना की जाती है। स्थानीय लोग उन्हें स्नेह से ‘जजयम्मावन’ या ‘जज अंकल’ कहते हैं। मान्यता है कि वे न्यायिक मामलों में उलझे लोगों की मनोकामनाएं सुनते हैं और मानसिक संतुलन व आत्मिक शांति प्रदान करते हैं।
यद्यपि यह मंदिर त्रावणकोर देवासम बोर्ड के अधीन है और इसकी प्रधान देवी भद्रकाली हैं, फिर भी जजयम्मावन की लोकप्रियता अलग पहचान रखती है। दक्षिण भारत के कई प्रतिष्ठित व्यक्ति, फिल्म जगत के सितारे और यहां तक कि न्यायपालिका से जुड़े लोग भी यहां विशेष रूप से दर्शन के लिए आते हैं। यह मंदिर हाल के वर्षों में तब राष्ट्रीय चर्चा में आया, जब अभिनेता दिलीप को 2017 के बहुचर्चित अपहरण और यौन उत्पीड़न मामले में 8 दिसंबर 2025 को अदालत से राहत मिली। उल्लेखनीय है कि केस दर्ज होने के बाद 2019 में दिलीप अपने भाई के साथ यहां पूजा-अर्चना करने पहुंचे थे।
इतिहास के पन्नों में झांकें तो त्रावणकोर रियासत पर उस समय कार्तिका तिरुनाल राम वर्मा का शासन था, जिन्हें ‘धर्मराजा’ के नाम से जाना जाता था। 7 जुलाई 1758 से 17 फरवरी 1798 तक चला उनका शासनकाल त्रावणकोर के सबसे लंबे और सुव्यवस्थित शासन कालों में गिना जाता है। वे कानून के पालन और प्राचीन न्याय प्रणाली के सख्त अनुयायी थे। इसी राजदरबार में गोविंद पिल्लै न्यायाधीश के पद पर कार्यरत थे। वे तिरुवल्ला के समीप थलावडी स्थित रामवर्मठ परिवार से संबंध रखते थे और संस्कृत के गंभीर विद्वान थे। न्याय और सिद्धांतों से समझौता न करना उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता थी।
त्रासदी तब घटी जब एक गंभीर आपराधिक मामले में गोविंद पिल्लै के भतीजे पद्मनाभ पिल्लै पर आरोप लगे और मुकदमा उसी न्यायालय में पहुंचा, जहां गोविंद पिल्लै न्यायाधीश थे। साक्ष्यों और तर्कों के आधार पर उन्होंने अपने रिश्ते को अलग रखते हुए भतीजे को दोषी ठहराया और मृत्युदंड सुना दिया। कुछ समय बाद उन्हें यह भयावह सत्य ज्ञात हुआ कि फैसला गलत था और पद्मनाभ पिल्लै निर्दोष थे। इस जानकारी ने गोविंद पिल्लै को भीतर तक झकझोर दिया।
अपने निर्णय से एक निर्दोष को मृत्यु के मुख में धकेलने का अपराधबोध वे सहन नहीं कर सके। उन्होंने स्वयं को दोषी मानते हुए राजा से अपने लिए दंड की मांग की। प्रारंभ में राजा ने इसे स्वीकार करने से इनकार किया, लेकिन गोविंद पिल्लै की अडिग नैतिकता के आगे अंततः सहमति देनी पड़ी। सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि अपने लिए सजा तय करने का आदेश भी गोविंद पिल्लै ने स्वयं दिया। उन्होंने अत्यंत कठोर दंड निर्धारित किया—दोनों पैर काटकर सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटकाने और शव को तीन दिनों तक उसी स्थान पर टांगे रखने का। यह आदेश शीघ्र ही लागू कर दिया गया।
घटना के बाद क्षेत्र में कई अशुभ घटनाओं और भयावह संकेतों की चर्चा होने लगी। तब एक ज्योतिषी से परामर्श लिया गया, जिसने बताया कि जज और उनके भतीजे की आत्माओं को मोक्ष नहीं मिल पाया है। इसके पश्चात गोविंद पिल्लै की आत्मा की शांति के लिए चेरुवल्ली के पय्यम्बल्ली स्थित उनके पैतृक निवास में समाधि दी गई, जबकि भतीजे की आत्मा को लगभग 50 किलोमीटर दूर तिरुवल्ला के एक मंदिर में स्थान प्रदान किया गया।
समय के साथ चेरुवल्ली देवी मंदिर परिसर में जजयम्मावन की प्रतिमा स्थापित की गई। वर्ष 1978 में गोविंद पिल्लै के वंशजों ने मुख्य देवी भद्रकाली के गर्भगृह से बाहर, उनके लिए अलग गर्भगृह का निर्माण कराया। तभी से यहां जज देवता की नियमित पूजा की परंपरा चली आ रही है।
दर्शन की व्यवस्था भी इस मंदिर को विशिष्ट बनाती है। प्रतिदिन यह स्थल केवल लगभग 45 मिनट के लिए श्रद्धालुओं के लिए खुलता है। रात्रि करीब 8 बजे, जब भद्रकाली देवी के मुख्य गर्भगृह के द्वार बंद हो जाते हैं, तब जजयम्मावन की पूजा आरंभ होती है। यहां का प्रमुख प्रसाद ‘अड़ा’ है, जिसे कच्चे चावल के आटे, गुड़ या चीनी और नारियल के बुरादे से तैयार किया जाता है। इसके अतिरिक्त नारियल पानी, पान के पत्ते और सुपारी भी अर्पित की जाती है।
भौगोलिक दृष्टि से यह मंदिर पोनकुन्नम और मणिमाला के बीच, पुनालूर–मुवाट्टुपुझा राजमार्ग पर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन कोट्टायम है, जो मंदिर से लगभग 37 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
(प्रस्तुति -अर्चना शैरी)



