Wednesday, December 17, 2025
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Ashok Tandon Book: ‘कलाम से पहले राष्ट्रपति बनने वाले थे अटल बिहारी वाजपेयी’

Ashok Tandon Book: कलाम से पहले राष्ट्रपति बनने वाले थे अटल, आडवाणी बनते प्रधानमंत्री? 2002 का यह बड़ा राजनीतिक फार्मूला क्यों टूट गया—नई किताब में चौंकाने वाला खुलासा

Ashok Tandon Book: कलाम से पहले राष्ट्रपति बनने वाले थे अटल, आडवाणी बनते प्रधानमंत्री? 2002 का यह बड़ा राजनीतिक फार्मूला क्यों टूट गया—नई किताब में चौंकाने वाला खुलासा

भारत की राजनीति से जुड़ा एक अहम और अब तक परदे के पीछे रहा अध्याय वर्ष 2002 के राष्ट्रपति चुनाव को लेकर सामने आया है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मीडिया सलाहकार रहे अशोक टंडन की नई पुस्तक ‘अटल संस्मरण’ में इस बात का विस्तृत उल्लेख है कि एपीजे अब्दुल कलाम से पहले भारतीय जनता पार्टी ने स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी को राष्ट्रपति पद के लिए आगे बढ़ाने का प्रस्ताव रखा था। इस योजना के तहत प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी लालकृष्ण आडवाणी को सौंपे जाने की चर्चा थी। हालांकि यह राजनीतिक योजना अंततः साकार नहीं हो सकी, क्योंकि वाजपेयी ने इसे सैद्धांतिक आधार पर अस्वीकार कर दिया।

2002 का राष्ट्रपति चुनाव और भाजपा की शुरुआती रणनीति

वर्ष 2002 में जब राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने वाली थी, उस समय एनडीए सत्ता में था और भाजपा के भीतर लालकृष्ण आडवाणी का प्रभाव अत्यंत मजबूत माना जाता था। उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन भी प्राप्त था। ऐसे राजनीतिक माहौल में पार्टी नेतृत्व ने पहले विकल्प के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद छोड़कर राष्ट्रपति बनने का सुझाव दिया। इसके साथ ही यह विचार रखा गया कि पार्टी की कमान और देश की कार्यकारी सत्ता प्रधानमंत्री के रूप में लालकृष्ण आडवाणी संभालेंगे।

अशोक टंडन की पुस्तक के अनुसार, यह प्रस्ताव गंभीरता से विचाराधीन था और इसे सत्ता संतुलन की एक सुविचारित रणनीति के रूप में देखा जा रहा था।

क्यों वाजपेयी ने ठुकरा दिया राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव

परंतु अटल बिहारी वाजपेयी इस सुझाव से सहमत नहीं हुए। टंडन लिखते हैं कि वाजपेयी का मानना था कि किसी लोकप्रिय प्रधानमंत्री का बहुमत के बल पर राष्ट्रपति बनना भारतीय संसदीय लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ होगा। उनके अनुसार, यह एक गलत परंपरा को जन्म दे सकता था, जिसे वे किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराते थे।

वाजपेयी का स्पष्ट मत था कि राष्ट्रपति पद को दलीय राजनीति और बहुमत के दबाव से ऊपर रहना चाहिए। इसी कारण उन्होंने पार्टी के भीतर से आए इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया।

कलाम के नाम पर बनी राष्ट्रीय सहमति

‘अटल संस्मरण’ में यह भी उल्लेख है कि इसके बाद वाजपेयी ने राष्ट्रपति पद के लिए व्यापक राजनीतिक सहमति बनाने का प्रयास किया। इसी क्रम में उन्होंने प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को आमंत्रित किया। इस बैठक में सोनिया गांधी, प्रणब मुखर्जी और डॉ. मनमोहन सिंह शामिल हुए।

इसी बैठक के दौरान वाजपेयी ने पहली बार औपचारिक रूप से बताया कि एनडीए ने डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का निर्णय लिया है। यह सुनते ही कुछ समय के लिए बैठक में सन्नाटा छा गया। बाद में सोनिया गांधी ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि वे इस नाम से आश्चर्यचकित हैं, लेकिन उनके पास समर्थन के अलावा कोई ठोस विकल्प नहीं दिखता। उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस इस प्रस्ताव पर आंतरिक चर्चा के बाद अंतिम निर्णय लेगी।

अंततः एपीजे अब्दुल कलाम को सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का समर्थन मिला और वे 2002 में भारत के 11वें राष्ट्रपति बने, इस पद पर उन्होंने 2007 तक कार्य किया।

अटल-आडवाणी की जोड़ी: मतभेदों के बावजूद अटूट रिश्ता

अशोक टंडन ने अपनी किताब में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के रिश्ते पर भी विस्तार से प्रकाश डाला है। उनके अनुसार, कुछ नीतिगत मुद्दों पर मतभेद होने के बावजूद दोनों नेताओं के संबंध कभी सार्वजनिक रूप से तनावपूर्ण नहीं रहे।

टंडन लिखते हैं कि आडवाणी हमेशा अटलजी को अपना “नेता और प्रेरणा स्रोत” मानते थे, जबकि वाजपेयी उन्हें अपना “पक्का साथी” कहा करते थे। दोनों की साझेदारी को उन्होंने भारतीय राजनीति में संतुलन और सहयोग का प्रतीक बताया है। इस जोड़ी ने न केवल भाजपा को खड़ा किया, बल्कि पार्टी और सरकार को स्थिरता और दिशा भी प्रदान की।

संकट के समय भी संवाद और संवेदनशीलता

किताब में 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हुए आतंकी हमले का भी उल्लेख है। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी अपने आवास पर थे और टेलीविजन पर सुरक्षा बलों की कार्रवाई देख रहे थे। इसी दौरान तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष और लोकसभा में विपक्ष की नेता सोनिया गांधी का फोन आया।

सोनिया गांधी ने वाजपेयी से कहा कि उन्हें उनकी सुरक्षा की चिंता है। इस पर अटलजी ने उत्तर दिया कि वे सुरक्षित हैं, लेकिन उन्हें चिंता थी कि कहीं सोनिया गांधी संसद भवन में न हों, और उन्होंने उनसे भी अपना ध्यान रखने को कहा। यह संवाद उस दौर की राजनीतिक परिपक्वता और आपसी सम्मान को दर्शाता है।

एक असफल योजना, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की जीत

2002 में अटल को राष्ट्रपति और आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने की योजना भले ही कागजों से आगे नहीं बढ़ सकी, लेकिन यह प्रकरण अटल बिहारी वाजपेयी के लोकतांत्रिक मूल्यों, संवैधानिक सोच और सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता को उजागर करता है। अशोक टंडन की किताब इस पूरे घटनाक्रम को भारतीय राजनीति के एक महत्वपूर्ण लेकिन कम चर्चित अध्याय के रूप में सामने लाती है।

 

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