Acharaya Anil Vats presents: मित्रों, आज हम आपको रामचरितमानस के लंकाकांड में वर्णित प्रभु श्रीराम और रावण के बीच हुए उस महान युद्ध का वर्णन सुनाएंगे, जिसे गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपार भक्ति और भाव से रचा..
बाबा तुलसी कहते हैं:
“समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान॥”अर्थात जो श्रद्धालु श्रीराम की युद्ध लीलाओं को श्रद्धा से सुनते हैं, उन्हें भगवान नित्य विजय, विवेक और ऐश्वर्य प्रदान करते हैं।
जब लक्ष्मणजी ने मेघनाद का वध किया, तब प्रभात हुआ। रीछ-वानर चारों दिशाओं में युद्ध के लिए सज गए। रावण ने क्रोध में भरकर कहा – “जिस शत्रु ने मुझसे बैर ठाना है, मैं उसे अपनी भुजाओं के बल पर उत्तर दूँगा।”
रथ सजा, अपशकुनों की झड़ी लगी, पर रावण अहंकार में अंधा था। उसने अपनी सेना को आगे बढ़ाया – वानर सेना श्रीराम की दुहाई देकर रणभूमि की ओर दौड़ी।
युद्ध शुरू हुआ – एक ओर रथ पर सवार रावण, दूसरी ओर बिना रथ के प्रभु श्रीराम। यह देखकर विभीषण चिंतित हुए। उन्होंने कहा – “नाथ! आपके पास रथ नहीं, कवच नहीं, जूते तक नहीं… रावण को कैसे हराएँगे?”
श्रीराम मुस्कराए और बोले –
*“सखा! विजय का असली रथ शौर्य और धैर्य है,
सत्य और सदाचार इसकी ध्वजा हैं।
बल, विवेक, संयम और परोपकार – ये उसके अश्व हैं,
क्षमा, दया, समता – लगाम हैं।
भक्ति सारथी है, वैराग्य ढाल है, संतोष तलवार है।
ब्राह्मणों-गुरुओं का पूजन अभेद्य कवच है।
ऐसा रथ जिस योद्धा के पास हो,
वह मृत्यु जैसे महाशत्रु को भी पराजित कर सकता है।”
यह सुनकर विभीषण की आंखों में श्रद्धा छलक उठी।
रावण का विकराल युद्ध:
युद्ध में रावण अत्यंत क्रोधित हुआ। पर्वत और शिलाएं भी उसके शरीर से टकराकर चूर हो जातीं। उसने दसों धनुषों से बाणों की वर्षा कर दी। वानर सेना व्याकुल हो उठी। तब लक्ष्मणजी क्रोध में भरकर रावण से भिड़ गए। उन्होंने रथ तोड़ा, सारथी मारा, दसों सिर और भुजाएं भेद दीं। रावण मूर्च्छित होकर गिर पड़ा, फिर ब्रह्मा प्रदत्त शक्ति चलाकर लक्ष्मणजी को घायल कर दिया।
हनुमानजी आए और रावण को घूंसा मारकर धरती पर गिरा दिया। फिर लक्ष्मण को उठाकर प्रभु श्रीराम के पास ले आए।
राम का धैर्य, रावण की माया:
रावण माया रचता गया – एक नहीं, करोड़ों राम-लक्ष्मण, हनुमान, यक्ष-पिशाच! पूरी सेना भ्रमित हो गई। तब श्रीराम ने एक बाण से सारी माया हर ली।
रावण अब पूरी शक्ति से भिड़ा। उसने त्रिशूल, शक्ति और चक्र चलाए, लेकिन श्रीराम ने सारे अस्त्रों को निष्फल कर दिया। लाखों बार सिर और भुजाएं काटी गईं, पर वे फिर उग आतीं।
अंतिम रहस्य – अमृत कुंड:
विभीषण ने कहा – “प्रभु! रावण के नाभिकुंड में अमृत है। जब तक वह नष्ट न हो, वह मर नहीं सकता।”
यह सुनकर श्रीराम ने विकराल बाण संधान कर नाभिकुंड को सोख लिया और फिर उसके दसों सिर और भुजाओं को काटकर दो टुकड़े कर दिए।
रावण गिरा – पृथ्वी हिल उठी। देवताओं ने नगाड़े बजाए, आकाश जयघोष से गूंज उठा। मंदोदरी के समक्ष रावण के कटे अंग रख दिए गए। रामबाण वापस तरकस में चले गए। रावण का तेज प्रभु श्रीराम के मुख में समा गया।
सीता की व्याकुलता:
उधर अशोकवाटिका में सीताजी व्यथित थीं। त्रिजटा ने उन्हें सारी कथा सुनाई। जब सीताजी ने पूछा कि प्रभु उसके हृदय में बाण क्यों नहीं मारते, तब त्रिजटा ने कहा –
*“रावण के हृदय में सीता हैं, और सीता के हृदय में श्रीराम।
यदि राम हृदय भेदें, तो ब्रह्माण्ड नष्ट हो जाए।
इसलिए प्रभु प्रतीक्षा कर रहे हैं –
जब रावण के हृदय से सीता का ध्यान छूटेगा,
तभी वे उसे अमोघ बाण से मारेंगे।”
यह सुनकर सीताजी को सुख और शोक दोनों हुए।
अंत में:
जब रावण मारा गया, तब:
असत्य पर सत्य की,
अधर्म पर धर्म की,
बुराई पर अच्छाई की जीत हुई।
इसी स्मृति में विजयादशमी या दशहरा मनाया जाता है।
पूरे ब्रह्मांड में जय-जयकार गूंज उठी।
बोलिए – श्री रामचंद्रजी की जय!
हर हर महादेव! काशी विश्वनाथ की जय!
जय सिया-राम!
(प्रस्तुति – आचार्य अनिल वत्स)