निराकार शब्द भी समझ में नहीं आता। निराकार शब्द भी हमारे मन में आकार का ही बोध देता है। असीम भी हम कहते हैं, तो ऐसा लगता है, उसकी भी सीमा होगी—बहुत दूर, बहुत दूर—लेकिन कहीं उसकी भी सीमा होगी। मन असीम का खयाल भी नहीं पकड़ सकता। मन का द्वार इतना छोटा है, सीमित है कि उससे अनंत आकाश नहीं पकड़ा जा सकता। इसलिए निराकार की साधना कठिन है। क्योंकि निराकार की साधना का अर्थ हुआ, मन को अभी इसी क्षण छोड़ देना पड़ेगा, तो ही निराकार की तरफ गति होगी।
मन से तो जो भी दिखाई पड़ेगा, वह आकार होगा। और मन से जहां तक पहुंच होगी, वह सीमा और गुण की होगी। मन के तराजू पर निराकार को तौलने का कोई उपाय नहीं है। जो तौला जा सकता है, वह साकार है। और हम मन से भरे हैं। हम मन ही हैं। मन के अतिरिक्त हमारे भीतर कुछ है, इसका हमें कोई पता नहीं। कहते हैं आत्मा की बात, सुनते हैं; लेकिन आपको उसका कुछ पता नहीं है। पता तो मन का है। उसका भी पूरा पता नहीं है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि दस में से केवल एक हिस्सा मन का हमें थोडा—थोड़ा पता है। नौ हिस्सा मन का भी हमें पता नहीं है। मन भी अभी ज्ञात नहीं है। अभी सीमित को भी हम नहीं जान पाए हैं, तो असीम को जानने में कठिनाई होगी।
निराकार शब्द तो खयाल में आ जाता है, लेकिन अर्थ बिलकुल खयाल में नहीं आता। अगर कोई आपसे कहे, यह जो आकाश है, अनंत है, तो भी मन में ऐसा ही खयाल बना रहता है कि कहीं न कहीं जाकर समाप्त जरूर होता होगा। कितनी ही दूर हो वह सीमा, लेकिन कहीं समाप्त जरूर होता होगा। समाप्त होता ही नहीं है, यह बात मन को उलझन में डाल देती है; मन घबड़ा जाता है। मन विक्षिप्त होने लगता है, अगर कोई भी सीमा न हो। मन की तकलीफ है।
मन की व्यवस्था सीमा को समझने के लिए है। इसलिए निराकार को पकड़ना कठिन हो जाता है।
एक सम्राट अपने एक प्रतिद्वंद्वी को, जिससे प्रतिद्वंद्विता थी एक प्रेयसी के लिए, द्वंद्व में उतरने की स्वीकृति दे दिया। द्वंद्व का समय भी तय हो गया। कल सुबह छ: बजे गांव के बाहर एकांत निर्जन में वे अपनी—अपनी पिस्तौल लेकर पहुंच जाएंगे और दो में से एक ही बचकर लौटेगा। तो प्रेयसी की कलह और झगड़ा शेष न रहेगा।
सम्राट तो पहुंच गया ठीक समय पर; समय से पूर्व; लेकिन दूसरा प्रतिद्वंद्वी समय पर नहीं आया। छ: बज गया। छ: दस बज गए; छ: पंद्रह, छ: बीस—बेचैनी से प्रतीक्षा रही। तब एक घुड़सवार दौड़ता हुआ आया प्रतिद्वंद्वी का एक टेलीग्राम, एक संदेश लेकर।
थोड़े से वचन थे उस टेलीग्राम में, लिखा था, अन—एवायडेबली डिलेड, बट इट विल बी ए सिन टु डिसएप्याइंट यू सो प्लीज डोंट वेट फार मी, सूट।
अनिवार्य कारणों से देरी हो गई। न पहुंचूंगा, तो आप निराश होंगे। इसलिए मेरी प्रतीक्षा मत करें, आप गोली चलाएं।
लेकिन गोली किस पर चलाएं? जो उस राजा की अवस्था हो गई होगी, वही निराकार के साधक की होती है। किस पर? किसकी पूजा? किसकी अर्चना? किसके चरणों में सिर झुकाएं? किसको पुकारें? किस पर ध्यान करें? किसका मनन? किसका चिंतन? कोई भी नहीं है वहां! वह राजा भी बिना गोली चलाए वापस लौट आया होगा!
निराकार का अर्थ है, वहां कोई भी नहीं है, जिससे आप संबंधित हो सकें। और मनुष्य का मन संबंध चाहता है। आप अकेले हैं! निराकार का अर्थ हुआ कि आप अकेले हैं; वहा कोई भी नहीं है आपके सामने।
इसलिए अति कठिन है। कल्पना में भी दूसरा, हम संबंधित हो पाते हैं। न भी हो वह। दूसरा, हमें सिर्फ खयाल हो कि दूसरा है, तो भी हम बात कर पाते हैं; तो भी हम रो पाते हैं; तो भी हम नाच पाते हैं।
यह मन, दूसरा हो, तो संबंधित हो जाता है, और गतिमान हो पाता है। दूसरा न हो, तो अवरुद्ध हो जाता है। कोई गति नहीं रह जाती है। इसलिए निराकार कठिन है।
निराकार की कठिनाई निराकार की नहीं, आपके मन की कठिनाई है। अगर आप मन छोड़ने को राजी हों, तो निराकार फिर कठिन नहीं है। फिर तो साकार कठिन है। अगर मन छोड़ने को आप राजी हों, फिर साकार कठिन है। क्योंकि मन के बिना आकार नहीं बनता।
इसका यह अर्थ हुआ कि सारा सवाल आपके मन का है। इसलिए आप इसको ऐसा मत सोचें कि निराकार को चुनें कि आकार को चुनें। यह बात ही गलत है। आप तो यही सोचें कि मैं मन को छोड़ सकता हूं या नहीं छोड़ सकता हूं। अगर नहीं छोड़ सकता हूं तो निराकार के धोखे में मत पड़े। आपका निराकार झूठा होगा। फिर उचित है कि आप साकार से ही चलें। अगर आप मन को छोड़ सकते हों, तो साकार की कोई भी जरूरत नहीं है। आप निराकार में खड़े ही हो गए।
साकार भी छूट जाता है, लेकिन क्रमश:। साकार की प्रक्रिया का अर्थ है कि धीरे— धीरे आपके मन को गलाएगा और एक ऐसी घड़ी आएगी कि मन पूरा गल जाएगा, और आप मन से छुटकारा पा जाएंगे। जिस दिन मन छूटेगा, उसी दिन साकार भी छूट जाएगा। जब तक मन है, तब तक साकार भी रहेगा।
तो साकार एक ग्रेजुअल प्रोसेस, एक क्रमिक विकास है। और निराकार छलांग है, सडेन, आकस्मिक। अगर आपकी तैयारी हो आकस्मिक छलांग लगाने की, कि रख दिया मन और कूद गए, तो निराकार कठिन नहीं है। पर रख सकेंगे मन? कपड़े जैसा नहीं है कि उतारा और रख दिया। चमड़ी जैसा है, बड़ी तकलीफ होगी।
चमड़ी से भी ज्यादा तकलीफ होगी। अपनी चमड़ी निकालकर कोई रखता हो, उससे भी ज्यादा तकलीफ होती है, जब कोई अपने मन को निकालकर रखता है। क्योंकि मन और भी चमड़ी से भी गहरा भीतर है। हड्डी—हड्डी, एक—एक कोष्ठ से जुड़ा है। और हमने अपने को ही उतारकर रखना है। अपने से ही खाली हो जाना है। को मान ही रखा है कि हम मन हैं। इसलिए मन को उतारकर रखना अपनी ही हत्या है।
इसलिए निराकार के साधकों ने, खोजियो ने कहा है कि जब तक अमनी, नो—माइंड, अमन की स्थिति न हो जाए तब तक निराकार की बात का कोई अर्थ ही समझ में नहीं आएगा।
सगुण के साथ अड़चन मालूम पड़ती है, अहंकार के कारण। साकार के साथ बुद्धि विवाद करती है। तो आदमी कहता है कि नहीं, मेरे लिए तो निराकार है। यह साकार से बचने का उपाय है सिर्फ मेरे लिए तो निराकार है।
लेकिन पता है कि निराकार की पहली शर्त है कि अपने मन को छोड़े! उसी मन की मानकर तो साकार को छोड़ रहे हैं, और निराकार की बात कर रहे हैं। और जब कोई आपको कहेगा कि निराकार का अर्थ हुआ कि अपने मन की आकार बनाने वाली कमीयों को बंद करें, हटाए इस मन को। तब आपको अड़चन शुरू हो जाएगी।
बहुत—से लोग हैं, जिन्होंने साकार को छोड दिया है , निराकार के पक्ष में और निराकार में उतरने की उनकी कोई सुविधा नहीं बनती। जब भी कुछ छोड़े, तो सोच लें कि जिस विपरीत के लिए छोड़ रहे हैं, उसमें उतर सकेंगे? अगर न उतर सकते हों, तो छोड़ने की जल्दी मत करें।
एक बात सदा ध्यान में रखें कि जो भी आप मानना चाहते हों, जो भी करना चाहते हों, जो भी धारणा बनाना चाहते हों, उससे आपको क्या होगा? क्या आप बदल सकेंगे? आपकी नई जिंदगी शुरू होगी? आपका पुराना कचरा बहेगा, जल जाएगा? आपको कोई नई ज्योति मिलेगी? इसका खयाल करें।
अगर निराकार से मिलती हो, तो निराकार की तरफ चल पड़े। अगर साकार से मिलती हो, तो साकार की तरफ चल पड़े। जहां से मिलती हो आनंद की किरण, वहा चल पड़े। चलने से यात्रा पूरी होगी, बैठकर सोचने से यात्रा पूरी नहीं होगी।
हमलोग जिंदगीभर विचार ही करते रहते हैं कि साकार की या निराकार की , निर्गुण कि सगुण…
(आचार्य अनिल वत्स)