Thursday, August 7, 2025
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Acharya Anil Vats presents: गुरू सिद्धि नहीं शुद्धि देते हैं

Acharya Anil Vats presents: शिष्य जीवन के भंवर में कहीं फॅस न जाये इसलिए गुर उसको निरंतर सदमार्ग पर लेकर आते हैं..और उसकी शुद्धि करते हैं..

Acharya Anil Vats presents: शिष्य जीवन के भंवर में कहीं फॅस न जाये इसलिए गुर उसको निरंतर सदमार्ग पर लेकर आते हैं..और उसकी शुद्धि करते हैं..

तुम्हारी पहचान तुम्हारे गुरू से होती है, तुम्हारे गुरू कौन है। जैसे ही तुम गुरू की ओर देखते हो तो देखते ही तुम्हारा अपने गुरू के साथ एक कनेक्शन हो जाता है, और जब कनेक्शन होता है तो गुरू के अंदर जो उर्जा होती है वह तुम्हारी ओर ट्रांसफर होना प्रारम्भ हो जाती है। और यदि गुरू पवित्र है तो गुरू का ध्यान करते ही तुम्हारे शरीर में, मन में और जीवन में पवित्रता बहना शुरू हो जाती है।

गुरू सिद्धि नहीं शुद्धि देगे । वह तुम्हें संस्कारों की शुद्धि देगे । वह तुम्हारे एक-एक बुरे कर्म को हटाकर तुम्हारी चेतना को उठाएगे । वह यह कभी नहीं कहेगे , ’कि चलो आज मैं तुम्हें सिद्धि देता हॅू।’ क्योंकि सब कुछ तुम्हारे ही भीतर समाया हुआ है। सब सिद्धियॉ भी तुम्हारे ही भीतर है, सारे अविष्कार जो हो चुके हैं और जो आगे होने वाले हैं वो सभी तुम्हारे ही भीतर समाये हुऐ हैं। तुम्हें बाहर से कुछ दिया ही नहीं जा सकता।

एक बार गौतम बुद्ध कहीं जा रहे थे तो उन्हें कुछ लोग मिले और बोले कि आइए हमारे पास कुछ सिद्धियां हैं हम आपको सिद्धि देते हैं। पर ऐसा नहीं हुआ भगवान बुद्ध ने तपश्चर्या की, साधना की और बोधित्व को प्राप्त हुये।

तुम अपने आप को असहाय और कमजोर कभी मत समझो, सारी शक्ति तुम्हारे अंदर मौजूद है। तुम्हारे अन्दर ही अन्नत छिपा है। सदगुरू का यही प्रयास है कि तुम्हारे अंदर जो अनंत सोया हुआ है तुम उसे जगा लो। जिस दिन तुम अपने भीतर की संपदा को जान लोगे उस दिन सारे दुख, सारे रोग दूर हो जाएंगे।

तुम त्रिलोकी को बाहर खोज रहे हो। उसी त्रिलोकी को अंदर खोजो। अंदर भी वही त्रिलोकी है।

लेकिन जब तक गुरू जीवन में नहीं आते तब तक मनुष्य भटकता रहता है जैसे कस्तूरी मृग की नाभि में होती है लेकिन इसकी सुगंध को ढूंढने के लिए मृग वन वन भटकता है उसी प्रकार मनुष्य ईश्वर की खोज में जीवन भर भटकता रहता है लेकिन जब गुरू उसके जीवन में आते हैं तो उसे अनुभव होता है कि भगवान कहीं बाहर नहीं वह तो अन्दर है। इस सृष्टि के कण कण में उस परमसत्ता का वास है।उसी के चेतना से समस्त सृष्टि चल रही है।

जब तुम किसी को गुरू बनाते हो तो उस समय तुम अपने जीवन की बागड़ोर उसके हाथ में दे देते हो।

उसके द्वारा बतायी साधना को करना और यदि तुम्हें उससे अनुभव होने लगे तुम्हारा जीवन बदलने लगे तुम्हें आत्मिक शांति प्राप्त होने लगे तो समझ लेना तुम्हे तुम्हारे गुरू मिल गये जिसे न जाने तुम कब से खोज रहे थे। उसी को अपना गुरू बनाना और जिसे एक बार गुरू बना लिया तो फिर उसके पल्लू को कस के पकड लेना। फिर उसे छोड़ने की मत सोचना। सब कुछ उस पर छोड़ देना।

वह तुम्हें इस लोक में भी पार करा देगा और परलोक में भी पार करा देगा। इसलिए कहा गया है कि नानक नाम जहाज है जो उसके जहाज में चढ़ गया वह एक न एक दिन पार हो ही जायेगा। और जो कभी इधर कभी उधर मन को भटकाये रखता है वह जीवन के भंवर में फंस जाता है।

गुरू का वह मार्ग है जो आपको नर से नारायण की यात्रा भी करा सकता है। वह आपकी चेतना का विस्तार करता है और फिर साधना करते-करते सगुण से निर्गुण अवस्था आती है तभी हम सिद्धत्व को प्राप्त होते हैं और यह अवस्था इतनी आसान नहीं है लेकिन यदि गुरू है तो आसान भी है। क्योंकि गुरू वह यात्रा कर चुका है जिस पर वह तुम्हें आगे बढ़ा रहा है। गुरू दीक्षा देता है।

दीक्षा यानी नाम-दान। नाम दान का बड़ा महत्व है क्यांकि गुरू के मुख से जो शब्द निकलता है उसमें गुरू के तप की अग्नि होती है और जब शिष्य उनके द्वारा दिये गए मंत्र का पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ जप करता है तो गुरू मंत्र की शक्ति से संचित कर्म भस्म होने लगते हैं उसकी बंद ग्रंथियॉं खुलने लगती हैं। जिससे उसके जीवन में शारीरिक, मानसिक, भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति होना प्रारम्भ हो जाती है।

सिद्ध वो है जो कड़ा तप करता है। सिद्ध वो है जो आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त कर चुका है जो अब और लोगों को भी इस मार्ग पर ले जा सकता है। गुरू तुम्हें मार्ग दिखा सकता है। सिद्ध होने के लिए आपको स्वयं मेहनत करनी होगी। गुरू शक्ति देता है। दुनियां के प्रपंचों से तुम्हारी रक्षा करता है। जहां तुम्हारे कदम गलत रास्ते पर गये वह तुम्हारे कदमों का आगे बढ़ने से रोक देगा। तुम जीवन के भंवर में कहीं फॅस न जाओं इसलिए वह तुम्हे सदमार्ग पर लेकर जाता है।

(प्रस्तुति  -आचार्य अनिल वत्स)

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