Wednesday, June 25, 2025
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Acharya Anil Vats presents: गिद्धों के राजा जटायु से जुड़ी अद्भुत ऐतिहासिक गाथा

Acharya Anil Vats के इस आलेख से जानिये क्यों है गिद्धराज जटायु का चरित्र इतना महत्वपूर्ण..

Acharya Anil Vats के इस आलेख से जानिये क्यों है गिद्धराज जटायु का चरित्र इतना महत्वपूर्ण..

छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य क्षेत्र में गिद्धराज जटायु का एक अनोखा मंदिर स्थित है। मान्यता है कि जब रावण सीता का अपहरण कर पुष्पक विमान से लंका की ओर जा रहा था, तब सबसे पहले जटायु ही थे जिन्होंने उसे रोका। भगवान राम की लीला में जटायु पहले वीर शहीद माने जाते हैं।

स्थानीय किवदंती के अनुसार, रावण और जटायु का आकाश में युद्ध यहीं दंडकारण्य में हुआ था, और युद्ध के दौरान जटायु के अंग इसी क्षेत्र में गिरे थे। यह मंदिर विश्व का एकमात्र जटायु मंदिर माना जाता है, जो इसे और भी विशिष्ट बनाता है।

ऐतिहासिक तथ्यों के कुछ प्रमाण मौजूद हैं, लेकिन आस्था और भक्ति साक्ष्य की मोहताज नहीं होती। इस मंदिर को देखना एक अत्यंत भावुक और रोचक अनुभव है। राम से जटायु की पहली भेंट पंचवटी (नासिक के पास) में हुई थी, लेकिन उनका बलिदान दंडकारण्य में हुआ।

रामायण और पुराणों की दृष्टि से जटायु का वर्णन

रामायण में जटायु और उनके भाई सम्पाती को गिद्ध जैसे पक्षी नहीं बल्कि गरुड़वंशी देवतुल्य योद्धा बताया गया है। वे ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी विनता के पुत्र अरुण के बेटे थे। अरुण सूर्यदेव के सारथी थे। जटायु और सम्पाती बचपन में सूर्य तक पहुंचने की इच्छा से उड़ान भरते हैं, लेकिन सूर्य की तपिश सह न पाने पर जटायु लौट आते हैं और सम्पाती आगे उड़ते हुए जलते पंखों के साथ गिर पड़ते हैं। बाद में एक मुनि की कृपा से उन्हें दोबारा पंख प्राप्त होते हैं।

जैन परंपरा में जटायु की कथा

जैन धर्म के अनुसार, राम, सीता और लक्ष्मण जब दंडकारण्य में थे, तब उन्होंने कुछ मुनियों को आकाश से उतरते देखा और उनका आदर-सत्कार किया। वहीं एक गिद्ध उनके चरणोदक में गिर पड़ा। मुनियों ने बताया कि यह वही राजा दंडक है, जिसने पूर्व जन्म में एक परिव्राजक के दुश्चरित्र से क्रोधित होकर पूरे श्रमण समाज का संहार करवा दिया था। उस पाप के कारण उसे अगले जन्म में गिद्ध योनि मिली। उसे धर्मोपदेश देकर राम-सीता को उसकी रक्षा का कार्य सौंपा गया। रत्न जैसे पंखों वाले इस दिव्य गिद्ध को ‘जटायु’ नाम मिला।

दशरथ से मित्रता और राम से संबंध

पंचवटी में निवास के दौरान जटायु की भेंट आखेट के समय राजा दशरथ से हुई थी, और वहीं से उनकी मित्रता प्रारंभ हुई। जब राम वनवास में पंचवटी में रहने लगे, तब जटायु से उनका पुनः परिचय हुआ। भगवान श्रीराम उन्हें अपने पिता के मित्र होने के कारण अत्यंत श्रद्धा से सम्मान देते थे।

रावण से युद्ध और अंतिम बलिदान

जब रावण सीता का अपहरण कर ले जा रहा था, तब सीता की पुकार सुनकर जटायु ने रावण को रोका। उन्होंने साहसपूर्वक रावण से युद्ध किया, लेकिन अंततः रावण ने तलवार से उनके पंख काट दिए और जटायु घायल अवस्था में धरती पर गिर पड़े।

बाद में, सीता की खोज में निकले राम जब उस स्थान से गुजरे तो उन्हें जटायु मिले। मरणासन्न जटायु ने उन्हें पूरी घटना बताई और यह भी बताया कि रावण किस दिशा में गया है। जटायु के बलिदान से राम अत्यंत व्यथित हुए और उन्होंने उनका वहीं विधिपूर्वक अंतिम संस्कार और पिंडदान किया।

यह कथा न केवल भक्ति और वीरता की मिसाल है, बल्कि हमारे पुरातन संस्कृति की गहराई को भी उजागर करती है।

(प्रस्तुतकर्ता: आचार्य अनिल वत्स)

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