Acharya Anil Vats presents: यह तथ्य सब लोग नहीं जानते कि राक्षस कुल में जन्मा मारीच भगवान राम का भक्त था..
राक्षस-कुल में उत्पन्न हुए विभीषण को हम राम-भक्त के रूप में जानते हैं। परंतु बहुत कम लोग यह जानते हैं कि राक्षसकुल में उत्पन्न होकर मारीच भी प्रभु श्रीराम का भक्त था। इसे जानने के लिए रामभक्त तुलसीदासकृत श्री रामचरितमानस के अरण्यकांड के उस प्रसंग में प्रवेश करते हैं , जहां लंकापति रावण मारीच के पास पहुंचा हुआ है।
रावण ने मारीच को कहा –
होहु कपट मृग तुम छलकारी।
जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी।।
तुम छल करनेवाले कपट मृग बनो , जिससे मैं उस राजवधू को हर लाऊं।
तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा।
ते नररूप चराचर ईसा।।
तासों तात बयरु नहिं कीजै।
मारें मरिअ जिआएं जीजै।।
तब उसने (मारीच ने) कहा – हे दशशीश ! सुनिए। वे मनुष्यरूप में चराचर की ईश्वर हैं। हे तात! उनसे वैर न कीजिए। उन्हीं के मारने से मरना और उन्हीं के जिलाने से जीना होता है अर्थात् सबका जीवन-मरण उन्हीं के अधीन है।
मुनिमख राखन गयउ कुमारा।
बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा।
सत जोजन आयउं छन माहीं।
तिन्ह सन बयरु किएं भल नाहीं।।
यही राजकुमार मुनि विश्वामित्र जी के यज्ञ की रक्षा के लिए गए थे। उस समय श्री रघुनाथ जी ने बिना फल का बाण मुझे मारा था , जिससे मैं क्षण भर में सौ योजन पर आ गिरा। उनसे वैर करने में भलाई नहीं है।
यहां यह समझने वाली बात है कि रघुपति का अमोघ बाण लग जाने पर भी मारीच जीवित रहा , तो केवल राम कथा को आगे बढ़ाने के लिए। श्रीराम खर- दूषण, सुबाहु , ताड़का, त्रिशिरा आदि का वध कर चुके थे , केवल मारीच ही प्रभु के कार्य के लिए जीवित बचा था।
जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड।
खरदूषण तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड।।
जिसने ताड़का और सुबाहु को मारा एवं शिवजी का धनुष तोड़ दिया। खर-दूषण और त्रिशिरा का वध कर डाला , ऐसा प्रचंड बली भी कहीं मनुष्य हो सकता है !
रावण ने मारीच की सलाह को न मानकर मारीच को ही धमकाया।
उभय भांति देखा निज मरना।
तब ताकिसि रघुनायक सरना।।
उतरु देत मोहि बधब अभागें।
कस न मरौं रघुपति सर लागें।।
जब मारीच ने दोनों प्रकार से अपना मरण देखा , तब उसने श्री रघुनाथ जी की शरण जाने में अपना कल्याण समझा। उसने सोचा कि उत्तर देते ही अर्थात् न करते ही यह अभागा मुझे मार डालेगा। इससे अच्छा है कि मैं श्री रघुनाथ जी के बाण लगने से ही क्यों ना मरूं ?
अस जिय जानि दसानन संगा।
चला राम पद प्रेमु अभंगा।।
मन अति हरष जनाव न तेही।
आजु देखिहौं परम सनेही।।
हृदय में ऐसा समझकर वह (मारीच) रावण के साथ चला। श्री राम जी के चरणों में उसका अटूट प्रेम है। मन में अत्यंत हर्ष है कि आज मैं अपने परम स्नेही का दर्शन करूंगा , पर यह बात वह उस (रावण) पर प्रकट नहीं करता।
(प्रस्तुति -पण्डित अनिल वत्स)