Acharya Anil Vats द्वारा प्रस्तुत इस लेख के माध्यम से जानिये वेद शब्द के अर्थ के विषय में..
वेद शब्द के तीन अर्थ सामान्यतः किये जाते हैं, जिसको त्रयी विद्या भी कहते है।
ईश्वर जीव प्रकृति, परमात्मा को सत्त्चिदानन्द सत्य अर्थात आन्तरिक अस्तित्व अन्तःकरणीय सत्य, चिवत्त अर्थात श्रेष्ट चेतनता श्रेष्ट आनन्द जो अस्तित्व से आता है।
केवल परमात्मा के अतिरिक्त सभी वस्तु नाशवान हैं। परमात्मा के पास ही सबसे अधिक शक्तिशाली शक्ति है। परमात्मा ही इस जगत का सबसे बड़ा स्वामी है और सबका रक्षक है। परमात्मा ही एक ऐसा तत्त्व है जो सब जगह सब में विद्यमान हैं।
परमात्मा ही सभी प्रकार की शक्तियों का मालिक और उद्धारकर्ता है। परमात्मा सब कुछ जानने वाला है वह सब के हृदय में बैठ कर सबका हर पल साक्षात्कार कर रहा है। उससे कुछ भी छुपाया नहीं जा सकता है ना ही कुछ भी छुप सकता है क्योंकि वह सर्वज्ञ है।
परमात्मा सर्वव्यापक है सब कुछ जानने वाला है। परमात्मा सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर, सर्वाअन्तर्यामी, सर्वोत्पादक, अजय, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, अनन्तज्ञान, त्रिकालदर्शी, परमात्मा ही सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान का प्रमुख स्रोत है जिसको सत्य के द्वारा जाना जाता है।
परमात्मा ही सबसे अधिक आनन्दित और आनन्द को देने वाला है। वह ही सबसे श्रेष्ठ न्याय करने वाला न्यायाधीश है जो हम सब को हमारे कर्मों के आधार पर निष्पक्ष भाव से न्याय करता है। और उपयुक्त कर्मों का फल उपहार पुरस्कार के रूप में देता है।
केवल परमात्मा ही पूर्ण है,और सभी प्रकार की अपूर्णता से रहित है। वह ही केवल एक ऐसा तत्त्व है जिसकी कोई भी मानव परिपूर्ण व्याख्या नहीं कर सकता है। क्योंकि वह अव्याख्य है उसको व्यक्त करने की जो भाषा वह मौन की भाषा है।
आज के समय में एक क्षण के लिए भी किसी का मौन होना असंभव के समान है ऊपर से तो लग सकता है कि मौन है लेकिन मन कभी शान्त या मौन नहीं होता है। उपर से उसने मौनता को ओढ़ रखा है। विचार उसके अन्दर बिना किसी व्यवधान के निरन्तर हमेशा चलते रहते है।
केवल परमात्मा ही एक ऐसा विषय है जिसकी व्याख्या या परिभाषा हम नहीं कर सकते। केवल हम अपनी आत्मा से अनुभूति कर सकते है। दूसरे सारे मार्ग अपूर्ण है।
क्या अदृश्य की व्याख्या कर सकते हैं?
यही एक रहस्य है, और जो भी उससे जुड़ा है वह भी उसके गुणों से परिपूर्ण है।
जीवन का मूल आधार वही है। यह जीवन रहस्य है इसमें जितना प्रवेश करते जायेगे उतना ही आनन्द बढ़ता जायेगा। परमात्मा एक है उसको लोग अपने अनुसार अनन्त नामों से जानते है। जैसा की वेद स्वयं कहते हैं
” एकं सद विप्रा बहुदा बदन्ति। “”
आनन्द और रहस्य के साथ आश्चर्य की अनुभूति होती है।
द्रविणोदाः पिपीषति जुहोत प्र च तिष्ठत। नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत॥9॥
महर्षि दयानन्द सरस्वती द्वारा किया गया इस श्लोक का भावार्थ बताता है कि इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। मनुष्यों को अच्छे ही काम सीखने चाहिये, दुष्ट नहीं, और सब ॠतुओं में सब सुखों के लिये यथायोग्य कर्म करना चाहिये, तथा जिस ॠतु में जो देश स्थिति करने वा जाने-आने योग्य हो, उसमें उसी समय स्थिति वा जाना-आना तथा उस देश के अनुसार खाना-पीना वस्त्रधारण आदि व्यवहार करके सब व्यवहारों में सुखों को निरन्तर सेवन करना चाहिये॥9॥
प्रतिष्ठा सम्मान, समृद्धि और ऐश्वर्य आनन्द की प्राप्ति त्याग से होती है। आत्मा सभी प्राणियों में विद्यमान है इसको सिवाय वैज्ञानिकों के कोई भी नकार सकता है।
वैज्ञानिक इसलिए नकार रहे हैं क्योंकि वह आत्मा का साक्षात्कार करने में पूर्णतः असमर्थ हैं। यह शाश्वत सत्य है कि आत्मा ही जीवन का मूल है। आत्मा के संसाधन अनन्त है जो एक दूसरे पर आश्रित है और अनन्त जीवन बिंदु के साथ बिभिन्न प्रकार की है।
जबकि परमात्मा एक है और आत्मायें अनन्त है। अनन्त का अर्थ सिर्फ यह है कि जो सिर्फ शरीर की सीमा में नहीं आता है। जो मानव अपनी समग्र उर्जा को केवल शरीर के लिए ही खर्च कर देते है वह एक दृश्य है, और जो मानव यह देखता है कि आत्मा समग्र में ब्याप्त है, और सब को सभी परिस्थितियों में एक समान देखता है। वह न ही ज्यादा पाकर बहुत ज्यादा बहुत सुखी होता है और ना ही कभी किसी प्रकार के बड़े दुःख को आने पर दुःखी ही होता है। वह दोनो में एक समान रहता है। जो व्यक्ति ऐसे है उनकी आत्मा को एक देशीय नहीं कहा जा सकता है।
उसके लिए अपना पराया कोई भी नहीं है वह दोनों से परे है, परमात्मा की तरह अन्तर सिर्फ इतना है। आत्मा जब स्वयं में ही केन्द्रित है तब एक देशीय है। आन्तरिक जो चेतनता है यह सब उसी से सम्भव है अन्यथा यह शरीर तो शव, मिट्टी के पुतले के समान है।
सारी उर्जा तो शरीर में भी विद्यमान है और सबका स्रोत आत्मा है। जिस प्रकार से कंप्यूटर है उसी प्रकार से यह शरीर है। बिना बिजली रूपी उर्जा के यह कंप्यूटर रूपी मशीन कार्य करने से इन्कार कर देता है। कंप्यूटर बिना बिजली के सिवाय एक डिब्बे के और क्या है?
इसी प्रकार बिना आत्मा के यह शरीर भी उसी प्रकार से है। प्रकृति जो जड़ है जिसमें सिर्फ सत् है इसमें ना चेतनता है ना ही आनन्द है जिसे भौतिक पदार्थ कहते है यह सब प्रकृति में आता है। इस ब्रह्माण्ड यही तीन सत्तायें है और इसी को जानना है।
जो शाश्वत है। प्रकृति के अन्दर एक गुण है आत्मा के अन्दर दो गुण है और परमात्मा के अन्दर तीन गुण आते है। प्रकृति जिससे शरीर बनी है।
वेद, प्राचीन भारत वर्ष का पवित्र और प्राचीनतम साहित्य है जो धरती के प्राचीनतम सनातन वैदिक, बौद्ध , जैनों के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं । वेद, विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य भी हैं। वेद भारतीय दर्शन के जनक, प्रेरक और मानक भूमिकाओं में केंद्रीय स्थान प्राप्त शब्दप्रमाण हैं।
(प्रस्तुति- आचार्य अनिल वत्स)