History is Memory: पुस्तक ‘तारापुर संग्राम’ बिहार के तारापुर नरसंहार के इतिहास का विवरण प्रस्तुत करती है, जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुआ था..पुस्तक उन 34 देशभक्तों के बलिदान पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित करती है जिन्होंने ब्रितानी शासन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में प्राणों का उत्सर्ग किया..
आज जब अक्सर यह बहस सुनाई देती है कि आज़ादी किसने दिलाई? हमने, उसने या इसने? इस बहस के भागीदार उस मूल्य को नहीं समझते जो भारत ने चुकाया है..क्योंकि आज़ादी किसी एक नेता, एक संगठन या एक दल या एक विचारधारा की देन नहीं थी अपितु यह एक ऐसी चेतना थी जो हर गांव, हर शहर, हर डगर में फूटी और एक सदी से भी अधिक समय तक सतत संघर्ष के रूप में बहती रही।
यह लड़ाई कभी बमकांड के रूप में सामने आई, कभी गुरिल्ला युद्ध में, कभी अख़बार के रूप में, कभी एक भूखे सत्याग्रही की चुप्पी में, और कभी- कभी तो सिर्फ़ एक राष्ट्रीय झंडे को फहराने के स्वप्न में।
ऐसा ही एक सपना लेकर 15 फरवरी 1932 को बिहार के मुंगेर ज़िले के तारापुर में सैकड़ों देशभक्त तत्कालीन ब्रिटिश थाना पर तिरंगा फहराने निकल पड़े थे। यह एक प्रतीकात्मक कार्यवाही थी और अंग्रेज़ी शासन की छाती पर सीधा प्रहार भी था। वे तिरंगा लेकर निकले थे, होंठों पर ‘वंदे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे थे, और हृदय में बलिदान की तैयारी।
ब्रिटिश कलक्टर ई. ओ. ली और एसपी डब्ल्यू.एस. मैग्रेथ के आदेश पर गोली चलने लगी — लगातार — और 34 से अधिक स्वतंत्रता सेनानी वहीं शहीद हो गए।
सरकारी रिपोर्ट में 75 राउंड गोलियां चलने का ज़िक्र है, लेकिन चश्मदीदों का कहना है कि कोई भागा नहीं, कोई डरा नहीं। वे सभी जानते थे कि आज वे शायद लौटेंगे नहीं — और फिर भी डटे रहे, क्योंकि उद्देश्य था तिरंगा लहराना, और उन्होंने वह कर दिखाया।
ध्वजवाहक दल के मदन गोपाल सिंह और उनके साथियों ने आखिरकार ब्रिटिश थाना पर तिरंगा फहरा ही दिया। ये वही ‘चरखे वाला तिरंगा’ था जिसे 1931 में अपनाया गया था। इस बलिदान में जिन 34 वीरों ने प्राण गवाए, उनमें से सिर्फ 13 की पहचान हो सकी — बाकी 21 अनाम ही रह गए, और शायद इतिहास ने भी उन्हें उतना नहीं पहचाना जितना उन्हें पहचाना जाना चाहिए था।
मृतकों की संख्या और अधिक हो सकती है क्योंकि कुछ पार्थिव शरीरों को तो गंगा में बहा दिया गया, ताकि ब्रिटिश अत्याचार की सच्चाई छिपाई जा सके। लेकिन जनता की आंखों में वह दिन दर्ज हो गया। तारापुर गोलीकांड के बाद तारापुर में ‘जनता सरकार’ की अवधारणा आकार लेने लगी।
इतिहासकारों ने इस घटना की तुलना जालियांवाला बाग से की, लेकिन एक अंतर स्पष्ट था — यह बलिदान पूर्व नियोजित था, स्वैच्छिक था, और इसी कारण यह कहीं अधिक प्रेरणादायक था।
फिर 1942 में, भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान तारापुर ने ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र ‘जनता शासन’ की स्थापना कर दी — संभवतः भारत में पहली समानांतर सरकार। यह चर्चिल तक की चर्चाओं में पहुंचा। तारापुर के अलावा देश में मात्र तीन स्थानों मेदिनीपुर, सातारा और बलिया में ही समानांतर सरकार बन पाई थी ।
नेहरू जी ने 1942 में तारापुर यात्रा के दौरान इसे श्रद्धांजलि दी और कांग्रेस अधिवेशन में यह निर्णय हुआ कि 15 फरवरी को ‘तारापुर दिवस’ मनाया जाएगा। लेकिन वो घोषणा भी कागज़ों में रह गई। देश के स्वतंत्र होने के बाद भी, तारापुर गोलीकांड और उसके 34 शहीद, उपेक्षा की धूल में दबा दिए गए।
आजादी के 75 साल बाद भी, 34 शहीदों का रक्तसाक्षी वह थाना भवन आज भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में खड़ा है, न राष्ट्रीय स्मारक बना, न पाठ्यपुस्तकों में उसका नाम आया।
हालांकि 2021 में दिन फिरे जब 31 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘पीएम मन की बात’ में इसका ज़िक्र किया, और राज्य सरकार ने शहीद पार्क और मूर्तियां स्थापित कीं। यह प्रयास सराहनीय हैं, पर अधूरे हैं।
क्या तारापुर को जालियांवाला बाग और चौरी चौरा की तरह “तारापुर संग्राम स्मारक” नहीं मिलना चाहिए?
क्या 34 ज्ञात और अज्ञात बलिदानियों की स्मृति में वह थाना भवन राष्ट्रीय धरोहर नहीं बनना चाहिए?
क्या NCERT की किताबों में तारापुर संग्राम का चैप्टर नहीं होना चाहिए?
जब हम आज़ादी पर गर्व करते हैं, तो हमें सिर्फ़ दिल्ली, अमृतसर और कोलकाता नहीं देखना चाहिए — हमें तारापुर को भी याद रखना चाहिए..क्योंकि वहां तिरंगा खून से सींचा गया था, और आज जब हम झंडा थामते हैं, तो उसमें 34 सपनों की रोशनी भी लहराती है।
यह हमारी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि तारापुर संग्राम को इतिहास में वह स्थान दें, जो वह वास्तव में सदियों पहले पा चुका था, पर मिला नहीं।
(जयराम विप्लव)