Manmohan Sharma writes: इंदिरा गांधी द्वारा देश में लगाई गई इमरजेंसी को हालांकि 47 वर्ष गुजर चुके हैं मगर आज भी उन काले दिनों को याद करने पर मेरी रूह कांप उठती है..
इस बात में कोई शक नहीं कि इंदिरा गांधी में तानाशाही प्रवृत्ति थी। इसलिए वह किसी भी असहमति को सहन करने के लिए कभी तैयार नहीं होती थीं। जब उन्हें अपनी गद्दी खतरे में नजर आई तो उन्होंने लोकतंत्र की मूल भावनाओं की धज्जियां उड़ाते हुए देश में आंतरिक आपातकाल घोषित कर दिया। जनाक्रोश को दबाने के लिए मीसा जैसे काले कानून का डटकर इस्तेमान हुआ। डेढ़ लाख से अधिक लोग जेलों में ठूंस दिए गए।
आपातकाल भारत के इतिहास का काला अध्याय है जिसे कोई भी देशवासी कभी भूलने की गलती नहीं कर सकता। देश में पूर्णतः पुलिस राज स्थापित हो गया। पुलिस जिसे चाहती उसे बिना मुकदमा चलाए जेल में ठूंस देती थी। न्यायालयों में इस तानाशाही के खिलाफ फरियाद करने तक ही व्यवस्था नहीं थी। इसके साथ यह भी उल्लेखनीय है कि सर्वोदयवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने समग्र क्रांति का जो स्वप्न देखा था उसे उनके ही अनुयायियों ने धूल में मिला दिया।
विपक्षी दलों का आरोप है कि आज भी नरेन्द्र मोदी के कदम अघोषित आपातकाल की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। वह देश में निरंकुश शासन लागू करके सारी शक्तियां अपने हाथ में सीमित करना चाहते हैं।इस लक्ष्य को पाने मे वह काफी हद तक सफल भी रहे है।
जहां तक श्रीमती इंदिरा गांधी का संबंध है, प्रारम्भ में उनकी छवि एक कमजोर शासक की थी। डॉ. लोहिया और अन्य विपक्षी नेता उन्हें ‘गूंगी गुड़िया’ कहा करते थे। कांग्रेस और प्रशासन पर वर्चस्व के लिए इंदिरा गांधी और दिग्गज कांग्रेसी नेताओं के सिंडिकेट के बीच जो द्वंद्व हुआ था उसमें बाजी इंदिरा गांधी के हाथ में रही। धीरे-धीरे इंदिरा गांधी ने प्रशासन पर अपनी पकड़ को मजबूत करना शुरू किया और उन्होंन जन समर्थन प्राप्त करने के लिए अनेक लोकलुभावन कदम उठाए।
1970 में उन्होंने पूर्व राजा-महाराजाओं को दिए जाने वाले प्रिवी पियर्स को संसद में कानून द्वारा समाप्त करने का प्रयास किया। जब वह इसमें विफल रहीं तो उन्होंने एक अध्यादेश द्वारा इसे लागू कर दिया। नौ बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा करके उन्होंने अपनी छवि गरीब समर्थक बनाने का प्रयास किया। इसके साथ ही देश के विभिन्न राज्यों में जमे हुए कांग्रेसी मठाधीशों को हटाकर उन्होंने अपने चुने हुए वफादार साथियों को मुख्यमंत्रियों के पदों पर बिठाना शुरू किया। इसके साथ ही उन्होंने देश में धुंआधार प्रचार द्वारा खुद को आम जनता के प्रतिनिधि और हमदर्द के रूप में पेश करना शुरू किया।
उनका यह प्रयास सफल रहा। 1971 का लोकसभा चुनाव उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे की आड़ में जीता। लोकसभा की 518 सीटों में से उन्हें 352 सीटें प्राप्त हुईं। उन्होंने पाकिस्तान के टुकड़े करके बांग्लादेश का निर्माण करवा दिया। इससे उनकी छवि जनसाधारण में खूब चमकी। यहां तक कि उन्हें विरोधी नेताओं ने खुलेआम ‘दुर्गा माता’ की उपाधि देनी शुरू कर दी। न्यायपालिका क्योंकि इंदिरा गांधी के रास्ते में बाधक सिद्ध हो रही थी इसलिए इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद के दावेदार तीन वरिष्ठत् न्यायाधीशों जेएम शैलेट, केएस हेगड़े और ग्रोवर को नजरअंदाज करके अपने चहेते एएन रॉय को मुख्य न्यायाधीश के पद पर आरूढ़ कर दिया।
इंदिरा गांधी के तानाशाही तौर-तरीकों के खिलाफ देश में जनाक्रोश की ज्वाला भड़क रही थी। छात्र सड़कों पर इंदिरा सरकार के खिलाफ मैदान में उतर आए। इंदिरा गांधी विरोधी आंदोलन सबसे पहले नवनिर्माण के नाम पर गुजरात में शुरू किया गया। इस आंदोलन के कारण कांग्रेस के मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद ये आंदोलन बिहार पहुंचा। वहां इस आंदोलन ने छात्र संघर्ष का स्वरूप लिया और इसकी बागडोर जयप्रकाश नारायण ने सम्भाल ली।
समग्र क्रांति जयप्रकाश नारायण का नारा था। जिसका आह्वान उन्होंने इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए किया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहा कि सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांति शामिल है जिसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक क्रांति होती है। इसके साथ ही इंदिरा विरोधी पार्टियां एक मंच पर इक्ट्ठी होनी लगी।
इसी दौरान इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिंहा के एक निर्णय ने भारतीय इतिहास की दिशा को ही बदल दिया। 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के मुख्य प्रतिद्वंद्वी राजनारायण थे, जो चुनाव हार गए। उन्होंने चुनाव परिणामों को उच्च न्यायालय में चुनौती दी। उनका आरोप था कि इंदिरा गांधी ने अपने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया है और तय सीमा से अधिक धन खर्च किया है।
इंदिरा गांधी ने जगमोहन लाल सिहा पर कई तरह से दबाव डालने का प्रयास किया मगर वह टस से मस नहीं हुए। उन्होंने अपने फैसले में चुनाव में धांधली करने का आरोप लगाया और 6 महीने तक कोई भी पद सम्भाले पर प्रतिबंध लगा दिया। चाहिए तो यह था कि न्यायालय के फैसले का सम्मान करते हुए इंदिरा गांधी अपने पद से त्यागपत्र दे देतीं। मगर उन्होंने इस फैसले को मानने से इनकार कर दिया और देश में 26 जून को आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी।
आकाशवाणी पर प्रकाशित इंदिरा गांधी ने अपने संदेश में कहा, ‘जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं तभी से मेरे खिलाफ गहरी साजिश रची जा रही है’। आपातकाल की घोषणा के साथ-साथ देशभर में समाचारपत्रों पर सेंसर लगा दिया गया। कहा जाता है कि आपातकालीन लागू करने से पूर्व श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस संदर्भ में मंत्रिमंडल से कोई सलाह-मशवरा नहीं किया था और राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को नींद से जगाकर आपातकाल लागू करने के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करवाए थे। आपातकाल देश के संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आंतरिक गड़बड़ की आड़ लेकर लागू किया गया था।
इसके साथ ही देशभर में विपक्षी नेताओं का आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तारियों का सिलसिला तेज हो गया। इसके साथ ही देश में सात संगठनों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। इनमें मार्क्सवादी पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमात ए इस्लामी भी शामिल है। नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को निलंबित कर दिया गया। संजय गांधी के नेतृत्व में देशभर में जबरी नसबंदी का अभियान चलाया गया। जिसके तहत लाखों लोगों की नसबंदी की गई। जिसने भी इस अभियान का विरोध किया उसे गोलियां से भून दिया गया। हर सरकारी कर्मचारी के लिए यह कोटा निर्धारित किया गया था जब वह एक निर्धारित समय में लोगों की नसबंदी करवाएगा।
दिल्ली, मुजफ्फरनगर, खालापार क्षेत्र में जब मुसलमानों ने नसबंदी का विरोध यह कहकर किया कि यह इस्लाम के खिलाफ है तो उन पर अंधाधुंध गोलियां चलाई गई जिसमें कई लोग मारे गए। जहां तक राजधानी का संबंध है तुर्कमान गेट आदि अनेक क्षेत्रों में स्लम बस्तियों का जबरन सफाया करने का अभियान चलाया तो उसका लोगों ने विरोध किया। इस पर विरोध करने वाले दर्जनों व्यक्तियों को गोलियों से भुन दिया गया।
दिल्ली की स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों को शहर से 40-40 किलोमीटर दूर नवनिर्मित पुनर्वास कॉलोनियों में जबरन फेंक दिया गया जहां पर उनके लिए किसी तरह की नागरिक सुविधा नहीं थी। इमरजेंसी के दौरान एक ओर तो जनता पर अत्याचारों के पहाड़ ढहाए गए थे मगर उसके कुछ अच्छे पक्ष भी थे जिनका उल्लेख करना जरूरी है। देशभर में टेªनें निश्चित समय पर चलने लगीं। दफ्तरों में सरकारी कर्मचारी निश्चित समय पर आने लगे और अपनी सीटों पर बैठकर डटकर काम करने लगे।
अपराधों में कमी आई। दुकानदारों को इस बात के लिए मजबूर किया गया कि वह अपनी दुकानों में विभिन्न वस्तुओं के मूल्य की सूची लगाएं। जिस दुकानदार ने इस आदेश का उल्लंघन किया उसे ही जेल की हवा खानी पड़ी।। हिन्द समाचारपत्र समूह के संस्थापक लाला जगतनारायण जी को अन्य अनेक पत्रकारों के साथ मीसा में जेल में ठंूस दिया गया। पंजाब सरकार ने इस समाचारपत्र समूह के प्रकाशन को रोकने के लिए क्योंकि उसकी बिजली काट दी थी इसलिए विश्व में पहली बार एक ट्रैक्टर की सहायता से इस पत्रकार ने समाचारपत्रों का प्रकाशन कर विश्व में नया रिकॉर्ड स्थापित किया।
आपातकाल कितनी देर तक जारी रहेगा यह स्पष्ट नहीं था मगर गुप्तचर ब्यूरो ने इंदिरा गांधी की एक गुप्तचर रिपोर्ट पेश करके उन्हें यह आभास कराया कि देशभर में उनकी लोकप्रियता जोरों पर है इसलिए अगर वह चुनाव करवाएंगे तो उन्हें उसमें निश्चितरूप से भारी विजय प्राप्त होगी।
इंदिरा गांधी गुप्तचर एजेंसी के झांसे में आ गई और उसने 18 जनवरी, 1977 को इमरजेंसी समाप्त करने की घोषणा कर दी। समाचारपत्रों पर लगा हुआ सेंसर हटा लिया गया और जनता के मूलभूत नागरिक अधिकार बहाल कर दिए गए। इसके साथ ही मार्च, 1977 में लोकसभा चुनाव करवाने की घोषणा की गई। यह दांव उलटा पड़ा और चुनाव में इंदिरा गांधी की उत्तर भारत में भारी हार मिली और सत्ता उनके हाथ से निकल गई।
(मनमोहन शर्मा)