Wednesday, June 25, 2025
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More Positive: सकारात्मक कैसे बनें—बिना ज़बरदस्ती मुस्कराहट या बनावटी खुशमिज़ाजी के

More Positive: ये प्रेरणा-लेख उन लोगों के लिए है जो “अरे, अच्छा सोचो!” जैसी सलाहें सुन-सुनकर थक चुके हैं..

हममें से कई लोग बुरे हालात की आशंका पालने के आदी हो चुके हैं—ये इसलिए नहीं कि हम निराशावादी बनना चाहते हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि सकारात्मक बनना अक्सर एक धुंधला-सा विचार लगता है, जो नकली उत्साह और खोखले मंत्रों से जुड़ा हुआ होता है।

यह सिर्फ़ इतनी सी बात नहीं है कि आप हर चीज़ की अच्छी तरफ़ देखना शुरू कर दें। येल विश्वविद्यालय की मनोविज्ञान प्रोफेसर और द हैप्पीनेस लैब पॉडकास्ट की होस्ट, डॉ. लॉरी सैंटोस कहती हैं कि इंसानों के दिमाग में जन्मजात रूप से नकारात्मकता की प्रवृत्ति होती है। इसका मतलब है कि हमारा दिमाग संभावित समस्याओं और बुरे नतीजों पर ज़्यादा ध्यान देता है, बजाय उन बातों के जो अच्छी हो रही हों। यही वजह है कि जब ज़िंदगी सामान्य भी चल रही हो, तब भी हमारा दिमाग किसी अगली गड़बड़ी की आशंका में भटकता रहता है।

अब इसमें अगर सोशल मीडिया पर फैल रही टॉक्सिक पॉज़िटिविटी—जैसे कि “बस मुस्कुराओ, सब ठीक हो जाएगा!”—को जोड़ दें, तो आशावादी बनने की कोशिश सतही और थकाऊ लगने लगती है।

लेकिन सिर्फ़ इसलिए कि हमारा दिमाग बुरी बातों पर ज़्यादा ध्यान देता है, इसका मतलब ये नहीं कि हम हमेशा के लिए निराशावादी रहने को मजबूर हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, कुछ व्यावहारिक और सहज तरीकों से आप ज्यादा उम्मीद रखने वाले (या कम से कम कम नकारात्मक) इंसान बन सकते हैं—बिना किसी बनावटीपन के।

शुरुआत ‘तटस्थ’ सोच से करें

डॉ पैरी एलेक्स बताते हैं, “आपको हर समय बेवजह खुश या ज़रूरत से ज़्यादा पॉज़िटिव दिखने की ज़रूरत नहीं है,” क्योंकि हमारा दिमाग समझ जाता है कि हम झूठा व्यवहार कर रहे हैं। इसलिए सिर्फ़ तटस्थ सोच अपनाना भी एक अच्छा पहला कदम हो सकता है।

जैसे—अगर कोई आपके मैसेज का जवाब नहीं दे रहा, तो खुद से ये कहना कि “वो मुझे इग्नोर कर रहा है” की बजाय कहें “उसने जवाब नहीं दिया है और इससे मैं बेचैन हो रहा हूँ, लेकिन असल में क्या चल रहा है, ये मैं नहीं जानता।” कभी-कभी सकारात्मकता की शुरुआत होती है—बस थोड़े कम नकारात्मक होने से।

“हमेशा” और “कभी नहीं” जैसे शब्दों से दूरी बनाएं

आप शायद पहले से जानते हों कि “मेरे साथ हमेशा बुरा ही होता है” जैसी सोच फायदेमंद नहीं होती। लेकिन इसके उलट “सब बढ़िया ही होगा!” जैसे अतिरंजित विचार भी वास्तविकता से दूर हो सकते हैं।

मनोवैज्ञानिक और लेखिका वन्या उपाध्याय कहती हैं, “सच्चाई अक्सर दोनों छोरों के बीच होती है।” ज़िंदगी मुश्किल हो सकती है, लेकिन उसमें सुधार भी आ सकता है। इसलिए सोच को काले-सफेद की बजाय धूसर रंगों में देखना सीखें।

उदाहरण: “ज़िंदगी कभी मेरी नहीं चलती” को बदलें—“मुझे वो अपार्टमेंट नहीं मिला जिसकी मुझे उम्मीद थी।” और “मैं कुछ भी ठीक से नहीं कर पाता” की जगह कहें—“इस बार मुझसे गलती हुई, लेकिन यह सिर्फ़ एक प्रोजेक्ट था।”

ऐसी ज़ुबान आपको अधिक संतुलित, वास्तविक और कम आलोचनात्मक सोच की ओर ले जाती है।

“अगर ऐसा हुआ, तो फिर क्या?”—सोचने की आदत डालें

ज़िंदगी में नकारात्मक स्थितियाँ कभी भी सामने आ सकती हैं—किसी से रिश्ता टूट सकता है, मनचाही नौकरी नहीं मिल सकती। लेकिन उनसे डरने की बजाय उनके लिए तैयारी करना बेहतर होता है।

मसलन, मान लीजिए आपको वह नौकरी नहीं मिली—तो फिर क्या? शायद आप अपने नेटवर्क से मदद लेंगे, या अपनी सीवी और बेहतर बनाएँगे। “अगर ऐसा हुआ, तो फिर?” जैसी रणनीति से आप ज़्यादा तैयार, आत्मविश्वासी और शांत महसूस करेंगे—बजाय अनिश्चितता और निराशा में डूबने के

याद करें—आप पहले भी कठिन समय पार कर चुके हैं

जब भी आप किसी मुश्किल दौर में हों, तो एक बार पीछे मुड़कर देखिए: आपने पहले किन परिस्थितियों का सामना किया था? और कैसे उबरे थे?

समाजसेवी शांता गुरुरानी कहती हैं, “खुद से पूछिए—‘पिछली बार मैंने इससे कैसे निपटा था?’” हो सकता है वह पहला ब्रेकअप हो, जो उस समय बहुत तकलीफदेह था, लेकिन अब सिर्फ़ एक याद बन गया है। या फिर वह awkward प्रेजेंटेशन हो जिसमें आप एकदम चुप हो गए थे—लेकिन वह पल भी गुजर गया।

ऐसे अनुभव याद दिलाते हैं कि मुश्किलें आती हैं, लेकिन आप उनमें फंस कर नहीं रह जाते—आप आगे बढ़ते हैं।

रोज़ की छोटी-छोटी जीतों पर ध्यान दें

अगर हम सिर्फ़ बड़ी उपलब्धियों का इंतज़ार करते रहें—जैसे मैराथन पूरी करना या घर खरीदना—तो बाकी के दिनों में खुद को असफल महसूस करना लाज़मी है।

इसलिए डॉ जुल्फी मिश्रा सलाह देती हैं, “हर दिन कम से कम एक छोटी चीज़ नोट करें जो उम्मीद से बेहतर रही हो।” जैसे—आज की कॉफी खासतौर पर अच्छी लगी, बारिश के बाद मौसम खुशनुमा हो गया, या आपके बाल पहली बार जैसे चाहा, वैसे सेट हो गए।

“जब हम दिमाग को यह सिखाते हैं कि जीवन में क्या सही चल रहा है—even in chaos—तब एक यथार्थवादी, पर मजबूत सकारात्मक सोच बनती है।” धीरे-धीरे ये आदतें ज़बरदस्ती की जगह भीतर से उपजी आशा की भावना को बढ़ावा देती हैं।

(सुमन पारिजात)

 

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