Osho की यह सुरुचिकर कथा पढ़ें जो एक गूढ़ सत्य को अनावृत्त करती है..
#कनफ्यूसियस के जमाने में चीन में दो चीनियों ने आमने-सामने दुकान खोली, होटल। एक का नाम था यिन और दूसरे का नाम था यांग; उन दोनों ने दुकानें खोलीं। दोनों की दुकानें अच्छी चलने लगीं, बहुत जोर से चलने लगीं।
धन इकट्ठा होने लगा, तिजोड़ी भरने लगी। लेकिन दोनों का दुख भी बड़ा होने लगा, जैसा कि अक्सर होता है। सफलता के साथ न मालूम कैसी गहरी उदासी आने लगती है। क्योंकि आप अकेले ही सफल नहीं होते, दूसरा भी सफल हो रहा होता है।
दोनों परेशान हो गए। दोनों की दुकान अच्छी चलती है। भीड़-भड़क्का होता है। ग्राहक काफी आते हैं। लेकिन दोनों परेशान हो गए। दोनों का हृदय-चाप बढ़ गया। दोनों की नींद हराम हो गई। अनिद्रा पकड़ गई। दोनों चिकित्सकों का चक्कर लगाने लगे, लेकिन कोई रास्ता न सूझे। धन बढ़ता गया और बेचैनी बढ़ती चली गई।
बेचैनी यह थी कि दोनों अपने-अपने काउंटर पर बैठकर देखते थे कि दूसरे की दुकान में कितने ग्राहक जा रहे हैं, उनकी गिनती करते थे। रात परेशान होते थे कि इतने ग्राहक चूक गए; अपने पास भी आ सकते थे।
चिकित्सकों ने कहा कि हम तुम्हारा इलाज न कर पाएंगे, क्योंकि यह बीमारी शारीरिक नहीं है। तुम कनफ्यूसियस के पास चले जाओ। उन्होंने कहा, कनफ्यूसियस इसमें क्या करेगा? वह उपदेश देगा। उपदेश से कुछ होने वाला नहीं है। सवाल असल यह है कि दूसरे की दुकान पर ग्राहक बहुत जा रहे हैं, और उन्हें हम देखते हैं। आंख बंद कर नहीं सकते हैं। सामने ही दुकान है। छाती पर चोट लगती है। हर बार एक आदमी भीतर प्रवेश करता है, फिर छाती पर चोट लगती है। नींद न जाएगी, तो होगा क्या! फिर भी, चिकित्सकों ने कहा,
तुम कनफ्यूसियस के पास जाओ। वह आदमी होशियार है,
और वह आदमी की गहरी बीमारियों को जानता है।
वे दोनों गए। कनफ्यूसियस ने तरकीब बताई और वह काम कर गई और दोनों स्वस्थ हो गए। बड़ी मजेदार तरकीब थी। शायद ही इस जमीन पर किसी और होशियार आदमी ने ऐसी तरकीब कभी बताई हो।
कनफ्यूसियस ने कहा, पागलो। बड़ा सरल-सा इलाज है।
दुकानें चलने दो, तुम एक-दूसरे के काउंटर पर बैठने लगो।
यिन यांग के काउंटर पर बैठे, यांग यिन के काउंटर पर बैठे,
तब तुम दोनों का चित्त बड़ा प्रसन्न होगा। दूसरे की दुकान में जो घुस रहे हैं, वे अपनी ही दुकान में जा रहे हैं! तुम ऐसा कर लो।
और कहते हैं, उन दोनों ने ऐसा कर लिया और उस दिन से उनकी सब बीमारियां समाप्त हो गईं। वे दिनभर बैठे मजा लेते रहते कि ठीक! काफी लोग जा रहे हैं अपनी दुकान में! वह दूसरे की दुकान अपनी हो गई अब। जिस दिन कोई परमात्मा को झांक लेता है, उस दिन सब दुकानें अपनी हो जाती हैं, सब कुछ अपना हो जाता है।
उस दिन भीतर की प्रफुल्लता का कोई अंत नहीं है। उस दिन फूल खिलते हैं भीतर के। सहस्र पंखुड़ियों वाला फूल उस दिन खिलता है भीतर का, क्योंकि उस दिन हम परम आनंद में विराजमान हो जाते हैं। सब अपने हैं। सब अपना है। सारा विराट अपना है।
ओशो;