Parakh Saxena के इस लेख में जमीनी सच्चाई के आंकड़ों पर भी दृष्टि डालिये..किन्तु निराश होने की नहीं सावधान होने की आवश्यकता है..
भारत जापान को पछाड़कर चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। स्टॉक मार्केट रॉकेट बनकर उड़ रहा है।
खबर सुकून वाली है लेकिन बस एक ही आंकड़ा है जो व्यथित करता है, जापान की आबादी 12 करोड़ है हमारी 150 करोड़।
हर जापानी साल का 29 लाख रूपये कमा रहा है और हम 2.5 लाख भी नहीं। खैर इसमें ये भी एक फैक्टर है कि जापान के सर्विस सेक्टर मे काम करने वालो की डिमांड ज्यादा है जबकि लोग कम है।
इस वज़ह से जॉब पैकेज अच्छे ही होते है लेकिन ये एक्सक्यूज़ तब काम करता ज़ब हमारी भी प्रति व्यक्ति 12 लाख रूपये सलाना के आसपास होती।
औसत भारतीय परिवार मे चार लोग होते है उनमे से एक कमाता है मान लो उसकी सैलरी 60 हजार भी है घर के खर्चे तो ठीक चल रहे है लेकिन ज़ब प्रति व्यक्ति आय की गणना होंगी तो इसे 15 हजार रूपये महीना ही गिना जाएगा और कुछ पश्चिमी मूर्ख इसे पोवर्टी बोलेंगे।
भारत मे परिवारो मे रहने की परंपरा है, बच्चे नौकरी पर लगते है तो चाहते है कि पिता अब जॉब छोड़ दे और लाइफ एन्जॉय करें। इन सामाजिक मूल्यों के बीच प्रतिव्यक्ति आय सदा ही चुनौती रहेगी। परिवार का हर व्यक्ति कमाये ये पश्चिम का कॉन्सेप्ट है।
इसलिए इन आंकड़ों को देखना है या नहीं वो आप तय कीजिये, मैं इतना कह सकता हुँ कि हम खुद को अपने स्तर पर निखारे। भारत मे बड़े राज्यों मे सबसे ज्यादा प्रतिव्यक्ति आय हरियाणा और गुजरात की है जो 4.5 लाख रूपये के आसपास है।
हम प्रयास करते है कि अगले 10 सालो मे अन्य राज्य भी इस आंकड़े के करीब आ जाए, जाहिर है तब तक गुजरात हरियाणा और आगे भाग चुके होंगे तब हम उस नंबर का पीछा करेंगे। इस तरह से काम करें तो दूर भविष्य मे आर्थिक असमानता का मुद्दा हल हो सकता है।
इन आंकड़ों मे एक डरा देने वाला तथ्य यह है कि भारत के यदि टॉप 5% उद्योगपति ये देश छोड़ दे तो हमारी प्रतिव्यक्ति आय 1 लाख के इर्द गिर्द रह जायेगी जो भयावह है क्योंकि ये अफ़्रीकी देशो से नीचे हो जायेगी।
इसलिए ज़ब कोई नेता पूंजीवाद के विरुद्ध बात करके सामजिक न्याय और समानता का ढ़ोल पीटे तो आप समझ जाइये कि आप किसी अंतर्राष्ट्रीय प्रोपोगंडा के शिकार हो रहे है। क्योंकि वोट की राजनीति ने आज तक किसी को न्याय नहीं दिलाया है।
दूसरा डर जो मन मे होना चाहिए वो ये कि समाज नशे से जितना दूर हो उतना ठीक। शराब का चलन आज भी कायम है ये जहर है, 40-45 की आयु तक लोगो के लीवर गल रहे है। ज़ब इस आयु का व्यक्ति मरता है तो वो परिवार को नहीं देश को भी नुकसान देकर जा रहा है।
इस आयु मे समाज आशा करता है कि वह अब रिटर्न मे समाज को कुछ देगा फिर चाहे वो नई तकनीक हो, नया व्यापार हो, नया आविष्कार हो या नया विचार हो लेकिन शराब यहाँ आतंकवादी से कम किरदार नहीं निभाती।
तीसरी आवश्यक बात है कि महिलाओ को आगे आने दे क्योंकि वे जनसंख्या मे आधी है, इतिहास गवाह है रानी कैकयी युद्ध मे अपने पति दशरथ की सारथी बनी है, राज दरबारो मे महिलाओ ने शास्थार्थ मे पुरुषो को मात दी है। महिलाओ को घर मे कैद रखना हमारी परंपरा नहीं है।
मुग़ल काल की मजबूरियों को आप प्रथा का नाम नहीं दे सकते, ये दासत्व का प्रतीक है किसी स्थानीय शान का नहीं।
बढ़ते तलाक, विवाह उपरांत संबंध और घर के आपसी झगड़ो के लिये नारी सशक्तिकरण उत्तरदायी नहीं है अपितु सामाजिक विचारो मे हो रहा परिवर्तन उसका दोषी है।
कई लोग शायद उक्त विचारों से सहमत ना हो और खैर सामाजिक मुद्दों से मुझे भी मतलब नहीं है, आज इसलिए लिख रहा हुँ क्योंकि ये राष्ट्र को मजबूत और जग सिर मोर बनाने की बात है।
बहरहाल ये तीन वे बिंदु है जिन पर हमें मंथन या यू कहे पुनः मूल्यांकन की आवश्यकता है। सरकार तो एक इंजन है ही लेकिन नागरिको को भी उस इंजन का अग्रदीप बनना होगा।
(परख सक्सेना)