Parakh Saxena की कलम से पढ़िये दुर्दशाग्रस्त बंगाल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि प्रगतिशीलता के धरातल पर..
ममता बनर्जी 1955 मे जन्मी, 1970 मे ही पिता गुजर गए। अब यहाँ आपको 1970 के बंगाल को समझना पड़ेगा, बंगाल का समाज इतना ज्यादा प्रगतिशील है कि कहा जाता है कि जो बंगाल आज कर रहा है वो दुनिया 20 साल बाद सोचेगी।
बंगाल मे महिला सशक्तिकरण 1970 के समय ही उस उफान पर था जितना आज भी कई अन्य राज्यों मे नहीं है। पूजा भी माँ के सबसे प्रचंड स्वरुप की होती है, बंगाल की महिलाये अपनी आकांक्षाओं के लिये अंतिम स्तर तक प्रयास करती है।
जिनके दफ़्तरो मे बंगाली सहकर्मी है वे पाएंगे कि बंगाली महिलाओ का सीनियर्स के मन पर एकतरफा शासन होता है। उन्हें आप कभी पीछे खड़ा नहीं पाएंगे बल्कि प्रभावशाली ही पाएंगे। नैतिकता चाहे जो हो मगर ये सीखने वाली बात है।
1970 मे भी यही हाल था, ममता बनर्जी ने कांग्रेस जॉइन की थी और 1974 मे कांग्रेस के खिलाफ जेपी आंदोलन शुरू हो गए। जेपी नारायण का कारवां कोलकाता पहुंचा तो उनके कार की बोनट पर खडे होकर ममता बनर्जी ने उनका विरोध किया।
आप कल्पना कर सकते है? 1975 मे एक 19 साल की लड़की जेपी नारायण जैसे बड़े व्यक्ति के काफ़िले के आगे ये तमाशा करें?समाज के लिये उसकी नफरत उसमे लालू से दोगुनी और खुद के प्रति महत्वाकांक्षाये अरविंद केजरीवाल से तीन गुनी है।
नफ़रत इसलिए कह रहा हुँ क्योंकि पिता के गुजरने के बाद कोई रिश्तेदार काम ना आया, समाज ने भी साथ नहीं दिया। ममता ने शादी तक नहीं की क्योंकि उसे लोगो से ही चिढ हो गयी।
ममता बनर्जी इसी जेपी कांड के बाद सुर्खियों मे आयी, उसे कांग्रेस मे बड़ा ओहदा मिला। 1984 मे वो पहली बार लोकसभा पहुंची, उस समय तक बंगाल मे कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता आ चुकी थी।
कम्युनिस्टो की राजनीति हिंसा के इर्द गिर्द घूमती है, कम्युनिस्ट गुंडों और दंगाइयो की सहायता लेने मे परहेज नहीं करते। ये ही वो दौर था ज़ब बंगाल मे हिंसा आसमान पार कर रही थी।
हिंसा का एक बिंदु ये है कि दंगाई एक समय बाद आपके ही कंट्रोल मे नहीं रहते। 35 सालो मे कम्युनिस्टो ने गुंडागर्दी इतनी बढ़ा दी कि अब वो उनके भी काबू से बाहर थी।
कम्युनिस्टो ने गुंडागर्दी करने के लिये बांग्लादेशी गैंग्स को भी घुसने दिया, 1989 के चुनाव मे कांग्रेस ने भाँप लिया कि उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी अब बीजेपी है तो कांग्रेस कम्युनिस्टो से हाथ मिलाने का प्लान करने लगी।
तब ममता बनर्जी ने कांग्रेस से बगावत की और एक अलग पार्टी तृणमूल कांग्रेस बनाई। उस समय तो ममता बनर्जी ने वाजपेयी जी को भी समर्थन दिया था।
ममता उस दौर मे साक्षात् माँ काली का ही रूप थी क्योंकि बंगाल मे कम्युनिस्ट शासन था ऊपर से अकेले गुंडों से भिड़ना था और अपना सतित्व भी बचाना था।
वैसे दौर मे ममता उभरी उसने वाजपेयी जी को हजार बार बांग्लादेशियो के खिलाफ सबूत दिये मगर कोई एक्शन नहीं हुआ। ज़ब मनमोहन का समय आया तो भी उसने बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा उठाया।
मगर ज़ब देखा कि कोई सुन नहीं रहा और ऊपर से 2006 के बंगाल चुनाव मे दोबारा कम्युनिस्ट पार्टी जीत गयी तो ममता ने अपनी स्ट्रेटजी बदली। गुंडों के बदले गुंडे, कम्युनिस्ट पार्टी के ज्यादातर विधायक अपराधी थे।
ममता ने भी बांग्लादेशी गैंग्स से हाथ मिलाया और उनसे भी बड़े गुंडे अपने साथ किये, उसी बीच टाटा नैनो वाला प्रकरण भी हो गया उसका भी फायदा उठाया और टाटा को बंगाल से निकाल दिया।
ये कैच गुजरात मे मोदीजी ने पकड़ा था और इसके लिये वे आज तक ममता बनर्जी को धन्यवाद कहते होंगे क्योंकि इसके बाद मोदीजी के लिये गांधीनगर से दिल्ली तक एक सड़क बन गयी थी।
वही ममता बनर्जी इन्ही गुंडों के कंधो पर बैठकर 2011 मे सत्ता मे पहुंची। तब से आज तक ये कायम है, लेकिन गुंडे जिस तरह कम्युनिस्टो के नहीं हुए ममता के भी नहीं हुए।
ममता बनर्जी को सत्ता की भूख थी, पिता को जल्दी खो दिया, माँ को समाज ने परेशान किया। ऊपर से बंगाली फेमिनिज्म तो है ही, ऐसे मे गुंडागर्दी से उसे प्यार नहीं तो नफ़रत भी नहीं, बस कुर्सी बनी रहे।
ये गुंडे अपराधी उसकी भी पहुँच से बाहर है यदि इन्हे छेड़ेगी तो सत्ता से भी जायेगी और उसकी अपनी जान को खतरा है।
इस बार 15 साल की एंटी इनकमबेंसी है, वो भी चाहेगी कि उसे मोदी सरकार जेल मे डाले या किसी तरह परेशान करें तो वो सहानुभूति ले सके। लेकिन बीजेपी इसे केजरीवाल की तर्ज पर डील कर रही है।
बीजेपी ज़ब भी बंगाल मे आये उसे उत्तर प्रदेश की तरह यहाँ भी किलो के भाव मे एनकाउंटर करने पड़ेंगे।
बंगाल का जंगलराज बिहार के जंगलराज से ज्यादा भले ही ना हो मगर वहाँ की राजनीति मे हावी है, समाप्त नहीं हुआ तो बंगाल आगे भी ज्योति बसुओ और ममता बनर्जीयो को पैदा करता रहेगा।
(परख सक्सेना)