Wednesday, December 17, 2025
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Poetry by Manmeet Soni: “एक तीस वर्षीय मजदूरनी के पांवों का सौंदर्य”

Poetry by Manmeet Soni: हर बार यही होता है..ऐसा लिखोगे तो कैसे पढ़ पायेंगे..आँसुओं के बीच से शब्द नहीं दिखते..हर बार यही होता है मनमीत जी !..

Poetry by Manmeet Soni: लेखक कलम का कलाकार होता है..और हर वह कलाकार अमर हो जाता है जो मानव होता है.. पढ़िये मनमीत जी की कविता ..

 

देखा उसे ईंट के टीले पर
रबर के एक पाइप से पानी का छिड़काव करते –
पांवों में हवाई चप्पल
गुलाबी टखनों पर धूल
पाँव की अंगुलियों में बिछिया
मज़बूत पिंडलियां
जो चमकती हैं
जब भी उठाती है बोझ
कमर से ऊपर तो देख ही नहीं पाया उसे
कि उस मजदूरनी की
जिससे शादी हुई है
वह मजदूर
मेरे लिए मेरे बड़े भाई राम समान है
और मैं
उस मजदूरनी का लक्ष्मण हूँ
जो मेरी भाभी है
यह रिश्ता क्यों और कैसे बना :
जानती है केवल मेरी आत्मा!

बजरी में धंसते हुए उसके पाँव
जैसे एक गुलाबी भंवर मटमैले दरिया में
लाल ईंटों से मुक़ाबला करती
उसकी गुलाबी एडियाँ
पिंडलियों पर वे रोएँ
जो नहीं होते किसी ब्यूटी पार्लर में “वैक्स”
बल्कि सूरज की रौशनी ही
जलाती है उन रोओं को
वह लाल किनारी की उधड़ी हुई साड़ी
जिसमें दस-बीस रुपये के नोट
जिनसे वह ख़रीदेगी मिर्च और छाछ
पति के लिए पव्वा
बच्चों के लिए गुड़ मूंगफली
कितना धन्य हूँ मैं
कि मैंने देखी
माँ अन्नपूर्णा आज इस रूप में भरी दोपहर!

अहा!
यह न्यूरो स्पाइन हॉस्पिटल के सामने
एक नलकूप
जिससे बहता है पानी
हीरे जैसा पानी
और इस पानी में रगड़-रगड़ कर साफ़ करती है
यह मजदूरनी
यानी मेरी कल्पित भाभी
अपनी एडियां
ऊबड़ खाबड़ कोटा स्टोन पर!

अहा!
जहाँ-जहाँ भी जाएगा यह पानी
उस धरती को हरा कर देगा
जिस-जिस पेड़ की जड़ में
जाएगा यह पानी
उस-उस पेड़ पर खिलेंगे सबसे सुर्ख़ फूल
अहा!
मेरा जी करता है
एड़ियों का मैल उतारने वाले इस पानी को
कहूँ गंगाजल
कहूँ आबे ज़मज़म
अपनी आत्मा के होंठों से छुआऊँ
यह चरणामृत
अपनी हस्ती को वुजू करवाऊं
सजदा करूँ
इस धरती को
जो अब भी पैदा करती हैं
ऐसा कच्चा और ख़ालिस सौंदर्य!

नाम नहीं जानता मजदूरनी का
जिसे भाभी समझ बैठा हूँ
जिसे कमर से ऊपर नहीं देखा अभी
उस बड़े भाई को नहीं पहचानता
जिसे राम कहता हूँ मन ही मन
काश!
कि एक बार छू सकता
मजदूरनी भाभी के पाँव
उन्हें सहला सकता
कर सकता सरसों के तेल की मालिश
चाहता हूँ
कि एक गर्म पानी की बाल्टी लाऊँ
डुबाऊं उसमें मजदूरनी भाभी के पाँव
उन्हें सुखाऊं अपनी पलकों से
पौंछूँ अपने शर्ट की आस्तीन से
और उन बॉलीवुड की महारानियों के आस-पास ही रख दूँ
यह पाँव –
उन पांवों के पास
जो चमकते हैं “वीट” और “दस हज़ार की रेगुलर वैक्स से”

आह!
यह पाँव
बजरी में धंसने के लिए नहीं बने हैं
यह पाँव तो
अपने साजन के वक्ष पर
धरे जाकर
चुम्बनों के फूलों के लिए बने हैं
ओ मेरी भाभी!
यह लाचार देवर
कैसे पहुँचाए तुझे इस बनते हुए अय्याश मकान से
एक सजे हुए रंग महल तक
जहाँ मेरा राम जैसा भाई
पंखा करे तुम्हारे चेहरे पर अपनी फूंक से
प्यार करे तुझे!

मुझे क्षमा करना भाभी
कि यह जानते हुए भी
कि किन रावणों ने तेरा हरण किया है
मैं उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता!
जब तक
कुछ कमीने करते हैं
इस सुंदर धरती पर शासन
तब तक महाकवि निराला के शब्दों में
तुम पत्थर ही तोड़ती रहोगी
चाहे इलाहबाद हो चाहे सीकर ( राजस्थान )

जाता हूँ भाभी माँ!
कॉलेज में पढ़ाने जाता हूँ
जहाँ पढ़ाने हैं मुझे
संविधान के मूल अधिकार
अपनी आत्मा को बंदी बनाना है
उस सोने की लंका में
जहाँ विभीषण की तरह राम-राम जपता हूँ
रहता हूँ
जैसे जीभ रहती है अकेली
बत्तीस दाँतों के बीच!

कमर से ऊपर नहीं देखा तुम्हें भाभी
कमर से नीचे ही देखा है –
मेरा विश्वास करना ओ मजदूरनी!

(मनमीत सोनी)

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