A Post By Acharya Anil Vats:धर्म की जय हो ! समर्थ गुरू रामदास की जय हो ।
हमारे लिये भोजन करना भी धर्म है ।
और उपवास करना ( भोजन न करना ) भी धर्म है ।
राग ( प्रेम करना ) भी धर्म है ।
वैराग्य ( सब कुछ छोड़ देना ) भी धर्म है ।
क्या मूर्ति पूजा ग्रीस में नहीं थी ? थी
क्या मूर्ति पूजा रोमन साम्राज्य में नहीं थी ? थी
क्या मूर्ति पूजा माया सभ्यता में नहीं थी ? थी
क्या मूर्ति पूजा मिस्र , ईरान या तुर्की में नहीं थी ? थी
पर एक किताबी झटके में वे नष्ट हो गये ।
पर इन सभ्यताओं में वैराग्य जैसी कोई संस्था नहीं थी । ध्यान दें पुजारी जैसे लोग सभी स्थान पर थे पर मैं यहां पर वैराग्योपाधिक धर्म की बात कर रहा हूँ ..
और आपको पौराणिक कथा नहीं एक आधुनिक इतिहास से यह बात समझा रहा हूँ..
समर्थ गुरू रामदास स्वयम् भिक्षा मांगकर या उनके शिष्य भिक्षा मांगकर लाते तो वे भोजन करते ..
उन्होंने शिवाजी को छत्रपति बनवाया तो क्या उसके बाद उनकी स्थिति रोमन साम्राज्य या ग्रीक सभ्यता के राजा के मुख्य पुजारी की हो गयी ? क्या वे अपनी कुटिया से निकलकर किसी महल में चले गये ? क्या उन्होंने धन संग्रह किया ? क्या वे मंहगे वस्त्र पहनने लगे । क्या उन्होंने आभूषण धारण कर लिया ? नहीं न ?
उनका एक चेला , छत्रपति बना पर समर्थ गुरू रामदास स्वयम् कुटिया में रहे । वैराग्योपाधिक धर्म का पालन करते रहे ।
आज भी एक मौलाना सब सुख सुविधा , हलाला फ़ैसिलिटी छोड़कर या पादरी करोड़ों की सम्पत्ति त्याग कर और बिना पीडीफ फ़ाइल बनाये रह सकता है क्या ? है दम किसी अन्य में ?
जब तक हमारे पास वैराग्योपाधिक गुण हैं । जब तक हम सनातन हित में सबकुछ त्यागने को तत्पर हैं तब तक सनातन हिन्दू धर्म का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।
एक नहीं सैकड़ों यूएसएड की अकूत संपदा वैराग्य के समक्ष नंगी है ।
(आचार्य अनिल वत्स द्वारा प्रस्तुत)