Shiva हैं प्रतीक विनाश, सृजन और करुणा के ..तीन महत्वपूर्ण दायित्व सम्हालते हैं भगवान भोलेनाथ..
भगवान शिव हिंदू धर्म के महानतम और पूज्य देवताओं में से एक हैं। वे त्रिदेवों — ब्रह्मा, विष्णु और शिव — में “संहारक” के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन उनका स्वरूप सिर्फ विनाश का नहीं, बल्कि नवसृजन और गहन आध्यात्मिकता का भी प्रतीक है। शिव एक ओर योग की परम शांति में लीन तपस्वी हैं, तो दूसरी ओर एक गृहस्थ, पति और पिता के रूप में भी आदर्श हैं।
उनकी पहचान अनेक विशिष्ट प्रतीकों से होती है — जटाओं से बहती पावन गंगा, सिर पर अर्धचंद्र, तीसरी आंख जो दिव्य ज्ञान और अंतर्दृष्टि का प्रतीक है, गले में विषधारी सर्प जो अपार शक्ति का संकेत है, और उनके त्रिशूल जो उनके संहारक रूप का प्रतिनिधित्व करता है। वे प्रायः कैलाश पर्वत पर ध्यानमग्न मुद्रा में दिखाई देते हैं, उनके नीचे बाघ की खाल और चारों ओर गहन तप की आभा होती है।
उनके गले का नीला रंग, जिसे ‘नीलकंठ’ कहा जाता है, समुद्र मंथन की उस कथा से जुड़ा है जब उन्होंने विषपान कर संसार की रक्षा की थी। यह त्याग और सहनशीलता की चरम अभिव्यक्ति है।
भगवान शिव को नटराज के रूप में भी जाना जाता है — जब वे तांडव नृत्य करते हैं। यह नृत्य सृष्टि, स्थिति और संहार के शाश्वत चक्र का प्रतीक है। उनकी पत्नी देवी पार्वती और पुत्र गणेश तथा कार्तिकेय उनके परिवार का अभिन्न अंग हैं, जो शिव के जीवन के संतुलित पहलू को दर्शाते हैं।
शिव के उपदेश जीवन में संतुलन, आंतरिक शांति और आध्यात्मिक जागरण की प्रेरणा देते हैं। उनका समाधिस्थ योगी रूप स्थिरता का प्रतीक है, जबकि तांडव नृत्य जीवन की गति और परिवर्तनशीलता को दर्शाता है। भक्तगण शिव की आराधना से शक्ति, आत्मज्ञान और मुक्ति की ओर अग्रसर होते हैं।
महाशिवरात्रि, भगवान शिव को समर्पित प्रमुख पर्व है। इस दिन भक्त उपवास रखते हैं, रात्रि जागरण करते हैं और शिवलिंग पर बिल्व पत्र, जल और दुग्ध अर्पित कर उनकी कृपा प्राप्त करते हैं।
भगवान शिव का बहुआयामी व्यक्तित्व — जिसमें संहारक का तेज और करुणा की गहराई दोनों समाहित हैं — हमें यह सिखाता है कि हर अंत, एक नए आरंभ का द्वार होता है। विनाश सिर्फ विध्वंस नहीं, बल्कि पुनरुत्थान की पहली सीढ़ी है।