(STORY)
मेडिसिन इमरजेंसी में नाइट ड्यूटी लगी थी। रात के 2 बज रहे थे। भगवान से मन ही मन प्रार्थना कर रहा था कि अब और मरीज न आएं, ताकि थोड़ी देर डॉक्टर्स ड्यूटी रूम में आराम कर सकूं।
सारे काम निपटाकर अंदर बेड पर लेटा ही था कि हेड नर्स ने आकर आवाज दी,
“सर! मेडिसिन का पेशेंट है।”
सोचा, सीनियर रेजिडेंट सर को उठा दूं, लेकिन वो गहरी नींद में थे। और वैसे भी रात के मरीजों की जिम्मेदारी हम जूनियर डॉक्टरों की होती है।
बाहर निकला तो देखा, एक बूढ़े बाबा स्ट्रेचर पर लेटे थे। उनके साथ उनकी बहू, बेटा और गाँव के तीन-चार लोग थे। बहू मुझे देखते ही रोते हुए बोली,
“डॉक्टर साहब! जल्दी देखिए, बचा लीजिए।”
पास गया तो बाबा के शरीर से अजीब सी गंध आ रही थी। सांस उखड़ रही थी, हाथ-पाँव थरथरा रहे थे। बाबा कुछ कुछ बुदबुदा रहे थे।
Poisoning का केस था, और शायद सल्फ़ास का।
गाँवों में इस्तेमाल होने वाला सबसे आम और सबसे ज़हरीला जहर। अगर अस्पताल आने में देर हो जाए, तो 90% मरीज नहीं बचते। न कोई एंटीडोट, और इतना घातक कि बस एक गोली हीं दस लोगों की जान ले ले।
मैंने जल्दी से ट्रीटमेंट लिख दिया। बाबा समय पर आ गए थे, इसलिए बचने की उम्मीद ज्यादा थी। हेड नर्स ने सारी दवाइयाँ और फ्लूइड लगवाकर उन्हें बेड नंबर 36 पर शिफ्ट कर दिया। इस सब में तीन बज गए थे, और मेरी नींद लगभग गायब हो चुकी थी। सोचा, चंदू की चाय दुकान खुल गई होगी, चलो चाय पी लूँ।
चाय लेकर मैं अस्पताल के बाहर एक बेंच पर बैठा ही था कि देखा, बूढ़े बाबा धीरे-धीरे चलते हुए बाहर आ रहे थे।
मैंने उन्हें रोका, “बाबा, आपको आराम करना चाहिए, कहाँ जा रहे हैं? बहुत जल्दी ठीक हो गए आप तो!”
बाबा हल्के से मुस्कुराए, “अरे न बाबू, अंदर मन अलबला रहा था, तो बाहर आ गए।”
मैंने पूछा, “काहे खाए थे सल्फ़ास? जानते नहीं कि कितना खतरनाक जहर है?”
बाबा थोड़ा हँसे, “हम कुछ नै खाए थे बाबू। कल हलवा बनल था, एक कटोरी पोतहु दी थी तो खा लिए। बहुत स्वादिष्ट था, जैसे हमरी मालकिन बनाती थी।”
“मालकिन मतलब, आपकी पत्नी?”
“हाँ बाबू, 10 साल पहले हमको छोड़ के चली गईं। तब से शुगर हो गया, बेटा-पोतहु मीठा बंद कर दिए। हम रोज़ जिद करते थे, हमको बहुत पसंद था मीठा। हमारी मालकिन बहुत बढ़िया गाजर का हलवा बनाती थी।”
मैंने पूछा, “चाय पियेंगे बाबा?”
“न बाबू, बस एक ठो बीड़ी पिला दो।”
वैसे तो डॉक्टर होने के नाते मेरा फर्ज था कि मरीजों को बीड़ी-सिगरेट से रोकूँ, लेकिन जाने क्यों, मैंने कहा,
“बैठिए बाबा, लाते हैं बीड़ी।”
“ए चंदू, दो ठो बीड़ी देना, एक माचिस भी।”
चंदू चौंककर बोला, “क्या तन्मय सर! अब आप बीड़ी पियेंगे? सिगरेट दूं बढ़िया वाला?”
“मेरे लिए नहीं, वो देखो, बाबा बैठे हैं न, उनके लिए है।”
“बताइए सर! जब डॉक्टर ही बीड़ी पिलाएगा मरीज को, तो पीने से रोकेगा कौन?”
“तुम चुपचाप दो न।”
मैंने बीड़ी ली और बेंच पर बैठ गया। बाबा ने पहला कश लिया, फिर आसमान की ओर देखते हुए बोले, “आज बहुत खुश हैं बाबू। हलवा खा लिए, बीड़ी भी पी लिए।”
“हलवा का स्वाद कैसा था बाबा?”
“मीठा था बाबू… लेकिन पोतहु बोली टैबलेट वाला मीठा है, चीनी नहीं डाले हैं। थोड़ा बहुत टैबलेट का स्वाद भी था।”
फिर हल्की हँसी के साथ बोले, “मन तृप्त हो गया बाबू, बहुत खुश हैं आज हम। अब जायेंगे।”
“कहीं नहीं जायेंगे नहीं आप, अभी डिस्चार्ज नहीं मिलेगा। 24 घंटा एडमिट रहना होगा। फिलहाल बीड़ी पी लीजिए, फिर बेड पे चले जाइएगा।”
बाबा मुस्कुराए, “खुश रह बाबू, खूब जस मिले।”
मैं भी मुस्कुराते हुए वापस इमरजेंसी में आ गया। अंदर पहुँचा तो सीनियर रेजिडेंट उठ चुके थे। मुझे देखते ही बोले,
“कहाँ था तन्मय? देखो, बेड नंबर 36 वाले बाबा डी कर गए हैं, उनका डिस्चार्ज बना दो।”
मैं सन्न रह गया। धीरे से पूछा, “कब?”
“अरे, एक घंटा पहले। जल्दी करो।”
बिस्तर के पास गया तो देखा, बाबा शांत लेटे थे। चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। मेरी आँखों से आँसू छलक पड़े।
पीछे से बहू जोर-जोर से रो रही थी, “सरकारी अस्पताल में नहीं लाना था, मार दिया डॉक्टरवा रे!”
मैं कुछ नहीं बोला। भागकर बाहर गया। देखा तो बेंच के पास बीड़ी के आधे जले हुए दो डंठल पड़े थे।
बाबा शायद अब अपनी मालकिन के पास पहुँच चुके थे।
(डॉ. तन्मय कुंज)