यह मन भी कितना अद्भुत है
जो प्राप्य नहीं
वह मांगे है,
जो प्राप्त है उस से
उकताता।
यह स्वयं ही गढ़ता
इच्छाएं
यदि पूर्ण न हों तो
अकुलाता।
हर द्वंद्व, युद्ध का
कुरुक्षेत्र
सब विजय पराजय इसमें ही
पल-पल आशाओं के रण में
नित लड़ता, मरता
पछताता।
यह जनक
अभीप्सा, तृष्णा का
यह कारक
सौ संतापों का
प्रत्येक इच्छा की मृत्यु पर
यह शोक नया उपजा लेता
भीतर-भीतर ही
पीड़ा को
बहुआयामी करता जाता।
मन यही
क्षणिक सा सुख पाकर
या तुच्छ सफलता के मद में
जगती का स्वामी
सा बनकर
पुलकित होता और
हर्षाता।
प्रायः
अपनी सकुचाहट ही
पग इसके बांधे रखती है
हाँ, कभी यही
पर साहस के
धारण करके उड़ने लगता
और अम्बर की
हर ऊंचाई
क्षण भर में ही
तय कर आता।
यह मन भी कितना अद्भुत है…
अशोक ‘नूर’