Ashok Pande का लेक बताता है कि वयस्कों की दुनिया में न सुख है न शांति -बेवजह क्रान्ति और बेमतलब भ्रांति समाप्त करती है भविष्य के भयानक होने की आशंका..
1940 के आते-आते प्राग शहर में रह रहे यहूदियों को न अपना पता बदलने की इजाज़त थी न शहर छोड़ने की. एक साल बाद उन्हें प्राग के चारों तरफ फैले जंगलों में टहलने पर भी मनाही हो गई. वे बसों, ट्रेनों में सफ़र नहीं कर सकते थे. उनकी दुकानें-धंधे बंद करा दिए गए. तमाम यहूदी नौकरियों से और उनके बच्चे स्कूलों से निकाल दिए गए. उनके घरों से टेलीफोन उखाड़ लिए गए और उन्हें सार्वजनिक टेलीफोन इस्तेमाल करने की इजाज़त भी नहीं थी.
अपमान, विद्वेष और घृणा का यह दौर दूसरे विश्वयुद्ध के समाप्त होने तक चला. उनके साथ ऐसी अमानवीय कत्लोगारत हुई कि समूचे चेकोस्लोवाकिया में रहने वाले कुल यहूदियों की आबादी साढ़े तीन लाख से घटकर चौदह हज़ार रह गई.
युद्ध शुरू होने के सोलह साल पहले फ्रान्ज़ काफ़्का की टीबी से मौत हो चुकी थी जिसके बाद वह बीसवीं सदी के सबसे बड़े लेखक के तौर पर स्थापित हो चुका था. 1938-39 में प्राग पर कब्ज़ा करने के बाद हिटलर की सत्ता ने पहले काफ्का की किताबों को केवल यहूदी पाठकों तक सीमित किया. उसके बाद उन्हें सभी के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया. काफ़्का के प्रकाशक शॉकेन को से भाग कर तेल अवीव जाना पड़ा.
1883 में प्राग में जन्मे काफ़्का की अगर अल्पायु में मृत्यु न हुई होती तो वह नाजी हत्यारों की बंदूकों का शिकार बनता या किसी गैस चैंबर में दम घुटने से मर गया होता. मालूम नहीं उसे मरने से पहले अपनी तीन बहनों – ओतला, वाली और एली – के बारे में कोई समाचार मिलता भी या नहीं.
वह तीनों बहनों से प्यार करता था. ओतला से सबसे ज्यादा क्योंकि जब-जब वह बीमारी से परेशान होता, वही उसे अपने घर में ले कर आती थी और उसका ख़याल रखती थी. अपनी कुछ महत्वपूर्ण कहानियां उसने ओतला के घर पर रह कर ही लिखी थीं.
कल्पना करता हूँ अगर काफ़्का सन 1943 तक जीवित रह गया होता तो हमें उसकी लिखी कुछ और किताबें नसीब होतीं. दुनिया ठीकठाक चली होती तो शायद उसे नोबेल भी मिल गया होता. लेकिन यह कल्पना करना नामुमकिन है कि पहले ही दुःख और कुंठाओं से अटे उसके जीवन में तब तक कैसा अकल्पनीय दुःख भर गया होता.
कभी प्राग का इत्तफ़ाक़ बने तो वहां के ज़िज़कोव इलाके में मौजूद यहूदियों के नए कब्रिस्तान में उसकी कब्र देखने अवश्य जाएं. उसकी कब्र की बगल में काले संगमरमर की एक प्लेट रखी रहती है. वह उसकी बहनों का स्मृतिचिन्ह है. ओतला, वाली और एली – तीनों को 1941 से 1943 के बीच नाज़ी यंत्रणा शिविरों में मौत के घाट उतार दिया गया था. उन्हें कोई कब्र तक नसीब न हुई. साथ में लगा फोटो काफ़्का की इन्हीं बहनों के बचपन का है.
दुनिया के साहित्य में भगवान का दर्ज़ा रखने वाला फ्रांज काफ़्का आज ही के दिन पैदा हुआ था. काफ़्का को वयस्कों के संसार से नफ़रत की हद तक भय लगता था. एक दफा उसने अपने सबसे पक्के दोस्त मैक्स ब्रॉड से कहा था – “बच्चे से मैं सीधा बूढ़ा बन जाऊंगा – सफेद बालों वाला बूढ़ा.”
वयस्कों के संसार से आपको भी भय लगता है?
(प्रस्तुति- अशोक पांडे)