Diwali: सबसे पहले याद आती है उस टीन की पिस्तौल की जो हमारे जमाने में हमको पुलिस वाली फीलिंग देती थी और लगता था कि वो पिस्तौल थाम कर हम दुनिया के सारे अपराधियों को हिला देंगे..
दीवाली के सीजन में सबसे पहले टीन की पिस्तौल खरीदी जानी होती थी. बैरल छोड़ कर उसका बाकी हिस्सा काला हुआ करता. दो तरह की गोलियां मिलतीं – पहली औरतों की छोटी बिंदी के बराबर गोल जिनके बीच में रत्ती भर बारूद चिपका होता. इन्हें चिटपुट कहते थे और इनके इस्तेमाल की तकनीक काफी जटिल थी. पिस्तौल के बैरल के नीचे लगे एक स्प्रिंग स्लाइडर की मदद से हैमर को आज़ाद करने के बाद फिर बैरल के रिटेनर पर एक गोली रखी जाती. हौले से हैमर को वापस सामान्य अवस्था में लाकर घोड़ा दबाना होता था. हैमर में जान हुई और गोली रिटेनर में लगी रह गयी तो फायर होता. अक्सर इस चक्कर में गोली पिस्तौल के अन्दर घुस जाया करती. उसे निकालने के लिए स्लाइडर को जोर से खिसकाना पड़ता जिसमें लगे स्प्रिंग के कारण बैरल झटके में खुल जाता था और पिस्तौल की खोखल मैकेनिज्म नंगी हो जाया करती. आठ-दस बार ऐसा करने पर स्प्रिंग या हैमर में से कोई एक चीज काम करना बंद कर देती या टूट जाती. कभी-कभार नन्हीं उँगलियां घायल हो जातीं. खून निकलने लगता.
गत्ते की बनी छोटी-छोटी डिब्बियों में मिलने वाले चिटपुट संसार के सबसे सस्ते पटाखे थे. पांच या दस पैसे की एक डिब्बी आ जाती थी. एक डिब्बी में पचास-साठ चिटपुट. पिस्तौल से मिलने वाली निराशा का समाधान कई तरीकों से किया जाता. एक-एक बिंदी को जमीन पर रख कर पत्थर से फोड़ा जाता. बाज बच्चे नाली वाली चाभियों में चिटपुट घुसा कर उन्हें लम्बी कील और पत्थर की मदद से फोड़ते. जिन्हें यह सब करने में डर लगता वे चिटपुटों को चप्पल के नीचे रखते और उन्हें पैर घिस कर फोड़ा करते. एक भी चिटपुट बर्बाद न जाता.
चिटपुट जैसी ही डिब्बियों में उनसे दूने-तिगुने दाम पर मिलने वाली दूसरे तरह की गोलियां लम्बी और पतली पट्टियों की सूरत में मिला करतीं जिन पर आधे-पौने सेंटीमीटर की दूरी पर बारूद की छोटी-छोटी बूंदें चिपकी रहतीं. बैरल के पीछे लगी एक कील के गिर्द इन्हें इस तरह लपेटा जाना होता कि बारूद की बिंदी रिटेनर के बीचोबीच सेट हो जाय. इसे करने के लिए भी तकनीकी कौशल की दरकार होती थी लेकिन एक बार ऐसा कर लेने के बाद घोड़ा दबा कर लगातार फायरिंग की जा सकती थी. आठ-दस बार पटाखा फूटता फिर पट्टी फट जाती या कील से निकल जाती. पिस्तौल को दूर फेंक दिया जाता और फिर से पत्थर, चाभी, कील, चप्पल वगैरह का सहारा रह जाता.
सस्ती आतिशबाजी के नाम पर सांप की गोली नाम की एक वैज्ञानिक चीज भी बाज़ार में आती थी. दवा की छोटी गोली के बराबर इस काली गोली को जमीन पर रख उसके एक सिरे पर जली माचिस छुआ भर देने से कालिख और गंद का काला-बेडौल सांप बनना शुरू हो जाता. कुत्ते की टट्टी की याद दिलाने वाले उस सांप को बनता देखते हुए वितृष्णा भी होती, मजा भी आता. सांप की गोली का इस्तेमाल माँ-बाप की निगाहों से दूर घर के किसी गुप्त स्थान पर किया जाना होता था. अव्वल तो वे उसे जलाने की इजाज़त देते ही न थे और अगर दे भी देते तो साफ़-सफाई की जिम्मेदारी हमारी होती. और बचपन में झाडू कौन लगाता है!
एक सीटी मिलती थी. बड़े पटाखों की तरह उसमें भी एक बत्ती बाहर निकली रहती जिसे आग दिखाने पर वह सुईंईंईं की तीखी-कर्कश आवाज के साथ घूमती हुई उड़ जाया करती. उसकी उड़ान उसे कहाँ लेकर जाएगी भगवान भी नहीं जानता था.एक बार दिनदहाड़े उड़ती हुई वह खिड़की का कांच फोड़कर पड़ोसी के बेडरूम में घुस गयी. हमारे कुछ भी कह-कर सकने से पहले ही सिर्फ तहमत पहन कर पड़ोसी बाहर निकल आया. फूं-फूं करता, आगबबूला हो कर वह हम बच्चों को ज़िंदा गाड़ देने की चेतावनी दे रहा था जबकि हमें ड्रम जैसी उसकी स्थूल तोंद का उठना-गिरना याद रहा. हम हरामी बच्चे थे और हफ़्तों तक उसकी तहमत के बारे में अश्लील मजाक करते रहे.
माचिस के डिब्बे के आकार का रेल नाम का एक बेहद जटिल पटाखा होता था जिसे चलाने के लिए काफी मेहनत करनी होती थी. उसकी खोखली नली में से लम्बे धागे को गुजारकर और खींच कर कहीं दूर बांधा जाना होता था जैसे कपड़े सुखाने वाली रस्सी बांधी जाती है. बत्ती में आग लगाई जाती और रेल धागे की पटरियों पर बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से भागती जाती. इस भागने का अंत रेल के भीतर लगे पटाखे के धमाके से होता. रेल के चले जाने के बाद भी धागा वैसा ही खिंचा रहता. यह अलग बात हुआ करती कि धागा जल कर काला पड़ गया होता था. हाथ लगाते ही टूट जाता और फर्श पर कालिख और गंदगी फैल जाती.
बाजार में बहुत कम पैसों में कार्बाइड पाउडर मिल जाता था. हालांकि उसका इस्तेमाल फलों, खासतौर पर आमों को जल्दी पकाने में होता था, हम उसका भी बम बनाते थे. आधा चम्मच कार्बाइड को धरती पर स्थापित कर उसके ऊपर तम्बाकू या पान-मसाले का ख़ाली डिब्बा उल्टा कर रखा जाता. डिब्बे की पेंदी में पहले से छेद किया जाना होता था. फिर उस छेद से कार्बाइड के ऊपर आठ-दस बूँद पानी गिराया जाता. पानी पड़ते की कार्बाइड खदबदाने लगता और जोर की फटाक-ध्वनि करता हुआ डिब्बा कई फीट दूर जा गिरता. रामनगर में इसे सुट्टन बम कहते थे.
सबसे बड़ा बम लक्ष्मी बम था जिसे छूना हम बच्चों के लिए निषिद्ध हुआ करता. सिर्फ बड़े भाइयों को उसे खरीदने और चलाने की इजाज़त मिलती. हम लोग पतले-लाल बमों से बनी एक या दो लड़ियां ख़रीद सकते थे. चटाई कही जाने वाली इन लड़ियों के आधे से ज्यादा बम फूटते ही नहीं थे. अगली दोपहर को हम कूड़ा बीनने निकलते और बिला नागा ऐसे आठ-दस न फूटे बम तलाश लेते. सड़क पर ट्रैफिक लोग चल रहे लोगों की झिड़कियों के बावजूद कड़ी धूप के नीचे इन बमों को वहीं आग दिखाई जाती. कोई एक फट्ट से फूट जाता तो मजा आ जाता.
चटाइयों को लेकर मोहल्ले के एक अंकल जी का उत्साह ऐतिहासिक था. उनकी मिठाइयों की दुकान थी. दीवाली की देर रात तक उनका धंधा चलता. आधी रात को वे घर लौटते और बिना पूजा किये, बिना खाना खाए अपने घर के सामने की सड़क पर चटाई बिछाना शुरू कर देते.
उनकी यह चटाई अकल्पनीय रूप से लम्बी हुआ करती और अड़ोस-पड़ोस के कोई दर्ज़न भर मकानों के आगे तक पहुँच जाती. मेरा परिवार धर्मात्माओं का परिवार था. उस वक्त तक हम बच्चों को मार-काट कर जबरन सुला दिया गया होता था जबकि हमारे कान सड़क पर चल रहे अभियान से लगे रहते. फिर भट-भट करते पटाखे फूटना शुरू करते. यह ध्वनि उत्तरोत्तर तीव्र होती जाती और कम से कम पांच मिनट तक पड़ोसियों के कानों में सीसे की तरह उतरती रहती.
अगली सुबह नगरपालिका की सफाई-टीम भी नहीं आती थी. सारी सड़क अंकल जी की चटाई के अवशेषों से पटी मिलती. बड़ों की निगाह से बचते हुए हम उस कूड़े के उत्खनन के लिए निकल रहे होते थे. भीतर से कोई गृहस्थन भुनभना रही होती –
“इतने पटाखे फोड़ता है लाला. तभी तो इसके घर में साल भर झिकझिक चलती रहती है.”
(अशोक पांडेय)