Wednesday, December 17, 2025
Google search engine
Homeअजब ग़ज़बCIA On Secret Mission: बरसों बरस पहले गुम हो गया था हिमालय...

CIA On Secret Mission: बरसों बरस पहले गुम हो गया था हिमालय की चोटियों में अनसुलझा परमाणु खतरा

CIA On Secret Mission: हिमालय में गुम हुआ परमाणु रहस्य - नंदा देवी पर CIA का खुफिया मिशन, प्लूटोनियम जनरेटर और 60 साल से अनसुलझा खतरा आज भी अनसुलझा ही है..

CIA On Secret Mission: हिमालय में गुम हुआ परमाणु रहस्य – नंदा देवी पर CIA का खुफिया मिशन, प्लूटोनियम जनरेटर और 60 साल से अनसुलझा खतरा आज भी अनसुलझा ही है..

करीब छह दशक पहले हिमालय की बर्फ़ीली ऊंचाइयों में एक ऐसा रहस्य दफन हो गया, जो आज तक सामने नहीं आ सका। यह कहानी है उस परमाणु डिवाइस की, जिसे अमेरिका की खुफिया एजेंसी CIA ने चीन की जासूसी के लिए भारत के नंदा देवी पर्वत पर ले जाने की योजना बनाई थी। यह डिवाइस न तो कभी बरामद हुई और न ही इसके पर्यावरणीय असर को लेकर उठे सवालों का कोई ठोस जवाब आज तक मिल पाया।

शीत युद्ध की पृष्ठभूमि और खतरनाक योजना की शुरुआत

साल 1965 का दौर था। शीत युद्ध अपने चरम पर था और चीन अपना पहला परमाणु परीक्षण कर चुका था। अमेरिका को चीन के मिसाइल कार्यक्रम और सैन्य गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए एक ऐसे स्थान की तलाश थी, जहां से तिब्बत और चीन के अंदरूनी इलाकों की निगरानी संभव हो सके। इसी दौरान CIA के रणनीतिकारों के दिमाग में एक असाधारण लेकिन जोखिमों से भरा विचार आया—हिमालय की ऊंची चोटी नंदा देवी पर परमाणु ऊर्जा से संचालित एक निगरानी एंटीना लगाया जाए।

इस एंटीना को लगातार ऊर्जा देने के लिए प्लूटोनियम से चलने वाला न्यूक्लियर जनरेटर इस्तेमाल किया जाना था, ताकि अत्यधिक ठंड और दुर्गम परिस्थितियों में भी उपकरण काम करता रहे।

एक कॉकटेल पार्टी से जन्मा खुफिया मिशन

इस गुप्त मिशन की कल्पना किसी सरकारी दफ्तर में नहीं, बल्कि एक सामाजिक आयोजन में हुई। अमेरिकी वायुसेना के शीर्ष अधिकारी जनरल कर्टिस लेमे की मुलाकात नेशनल जियोग्राफिक के प्रसिद्ध फोटोग्राफर और एवरेस्ट पर्वतारोही बैरी बिशप से हुई। बातचीत के दौरान बिशप ने बताया कि हिमालय की ऊंची चोटियों से तिब्बत और चीन तक का भू-भाग बेहद स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

यहीं से CIA को अपने मिशन की दिशा मिल गई। कुछ ही समय बाद एजेंसी ने बिशप से संपर्क कर एक गुप्त अभियान को “वैज्ञानिक अनुसंधान” के रूप में पेश करने की जिम्मेदारी सौंप दी। बिशप को पर्वतारोहियों की टीम बनाने, एक विश्वसनीय कवर स्टोरी गढ़ने और पूरे अभियान को पूर्ण गोपनीयता में संचालित करने का काम दिया गया।

इस योजना के तहत “सिक्किम साइंटिफिक एक्सपेडिशन” नाम से एक फर्जी वैज्ञानिक अभियान खड़ा किया गया। टीम में युवा अमेरिकी पर्वतारोही और वकील जिम मैकार्थी को शामिल किया गया, जिन्हें हर महीने 1,000 डॉलर का भुगतान किया गया। CIA ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा अहम कार्य बताया।

भारत की भागीदारी और कैप्टन एम.एस. कोहली की चेतावनी

1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद भारत ने भी बेहद सतर्कता के साथ इस मिशन में सहयोग दिया। भारतीय पक्ष से इस अभियान का नेतृत्व देश के जाने-माने पर्वतारोही कैप्टन एम.एस. कोहली कर रहे थे। हालांकि, कोहली शुरू से ही CIA की योजना को लेकर आशंकित थे।

जब अमेरिकी एजेंसी ने सबसे पहले कंचनजंघा पर डिवाइस लगाने का प्रस्ताव रखा, तो कोहली ने इसे पूरी तरह अव्यावहारिक बताते हुए खारिज कर दिया। जिम मैकार्थी ने भी बाद में स्वीकार किया कि उस योजना को देखकर उन्हें लगा था कि यह सरासर पागलपन है। अंततः सभी की सहमति नंदा देवी पर बनी, जिसे ऊंचाई, भौगोलिक स्थिति और निगरानी के लिहाज से अधिक उपयुक्त माना गया।

जानलेवा चढ़ाई और प्लूटोनियम से भरा बोझ

सितंबर 1965 में अभियान शुरू हुआ। पर्वतारोहियों को बिना पर्याप्त अनुकूलन (एक्लीमेटाइजेशन) के हेलिकॉप्टर से ऊंचाई पर पहुंचा दिया गया, जिससे कई सदस्य बीमार पड़ गए। टीम के पास लगभग 13 किलोग्राम वज़न वाला SNAP-19C नामक न्यूक्लियर जनरेटर था, जिसमें अत्यधिक रेडियोधर्मी प्लूटोनियम भरा था।

कैप्टन कोहली के अनुसार, शेरपाओं के बीच इस “गरम बोझ” को उठाने को लेकर बहस तक हुई, क्योंकि जनरेटर से गर्मी निकल रही थी। उस समय किसी को यह अंदाज़ा नहीं था कि वे कितने बड़े खतरे को अपने कंधों पर ढो रहे हैं।

16 अक्टूबर 1965: जब मौत सामने खड़ी थी

16 अक्टूबर की रात टीम शिखर के बेहद करीब पहुंच चुकी थी, तभी अचानक भीषण बर्फ़ीला तूफान आ गया। हालात इतने भयावह थे कि भारतीय पर्वतारोही सोनम वांग्याल ने बाद में कहा कि उन्हें लगा वे 99 प्रतिशत मर चुके हैं—न खाना था, न पानी, और शरीर पूरी तरह टूट चुका था।

नीचे एडवांस बेस कैंप से कैप्टन कोहली की घबराई हुई आवाज़ रेडियो पर गूंजी—“तुरंत लौट आओ, एक पल भी मत गंवाओ।” इसके बाद आदेश मिला कि उपकरणों को सुरक्षित जगह पर छोड़ दिया जाए और किसी भी हालत में उन्हें नीचे लाने की कोशिश न की जाए।

हिमालय में छोड़ा गया परमाणु उपकरण

टीम ने कैम्प फ़ोर के पास एक बर्फ़ीली चट्टान पर एंटीना, केबल और प्लूटोनियम जनरेटर छिपा दिया और जान बचाने के लिए तेजी से नीचे उतर आई। वहीं, हिमालय की गोद में एक ऐसा परमाणु डिवाइस रह गया, जिसमें नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बम में इस्तेमाल हुए प्लूटोनियम का लगभग एक-तिहाई हिस्सा था।

जिम मैकार्थी इस फैसले से बुरी तरह नाराज़ थे और लगातार डिवाइस को वापस लाने की बात कर रहे थे, लेकिन उस हालात में कैप्टन कोहली का आदेश अंतिम साबित हुआ।

एक साल बाद की वापसी और रहस्य का और गहरा जाना

अगले वर्ष टीम उपकरण को वापस लाने लौटी, लेकिन वहां कुछ भी नहीं मिला। जिस स्थान पर डिवाइस छिपाई गई थी, वह हिमस्खलन की चपेट में आ चुका था। बर्फ़, चट्टानें और उपकरण—सब कुछ बह चुका था।

CIA अधिकारियों की चिंता साफ झलक रही थी। कई खोज अभियान चलाए गए, रेडिएशन डिटेक्टर और इंफ्रारेड सेंसर लगाए गए, लेकिन प्लूटोनियम जनरेटर का कोई सुराग नहीं मिला। जिम मैकार्थी का मानना था कि डिवाइस लगातार गर्मी पैदा कर रही थी, जिससे आसपास की बर्फ़ पिघलती रही और वह धीरे-धीरे गहराई में धंसती चली गई।

यह मिशन पूरी तरह विफल रहा। अमेरिका ने इसे कभी आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं किया। सरकारी दस्तावेज़ों में मानो यह घटना घटी ही न हो। यह रहस्य 1978 तक दबा रहा, जब पत्रकार हॉवर्ड कोहन ने Outside मैगज़ीन में इसकी पड़ताल प्रकाशित की।

भारत में आक्रोश और कूटनीतिक पर्दादारी

रिपोर्ट सामने आते ही भारत में जबरदस्त विरोध हुआ। लोग सड़कों पर उतर आए और नारे लगे—“CIA हमारी नदियों को ज़हर दे रही है।” इस विवाद को शांत करने के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर और भारत के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने पर्दे के पीछे बातचीत की।

कार्टर ने एक निजी पत्र में देसाई की “हिमालयी उपकरण समस्या” से निपटने की प्रशंसा की और इसे एक “दुर्भाग्यपूर्ण घटना” बताया। सार्वजनिक रूप से दोनों देशों ने बहुत कम बयान दिए और मामला धीरे-धीरे ठंडे बस्ते में चला गया।

आज भी जिंदा सवाल: गंगा और पर्यावरण पर खतरा?

आज इस मिशन से जुड़े अधिकांश लोग या तो वृद्ध हो चुके हैं या इस दुनिया में नहीं रहे। लेकिन सवाल अब भी कायम हैं। जिम मैकार्थी आज भी गुस्से में कहते हैं, “आप उस ग्लेशियर पर प्लूटोनियम नहीं छोड़ सकते, जो गंगा नदी में मिलता है। क्या आपको अंदाज़ा है कि कितने लोग गंगा के पानी पर निर्भर हैं?”

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में कैप्टन एम.एस. कोहली ने भी इस मिशन को लेकर गहरा पछतावा जताया। उन्होंने कहा था, “मैं ऐसा मिशन दोबारा कभी नहीं करता। CIA ने हमें अंधेरे में रखा। योजना गलत थी, फैसले गलत थे, और सलाह देने वाले भी गलत थे। यह मेरी ज़िंदगी का सबसे दुखद अध्याय है।”

(न्यूज़ हिन्दू ग्लोबल ब्यूरो)

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments