Love is Power: प्यार की ताकत है बेमिसाल -इस प्यार करने वाले पति ने 6,000 किलोमीटर साइकिल चलाकर बदली अपनी किस्मत, भारत से स्वीडन तक प्रेम की ऐतिहासिक यात्रा..
यह कहानी उस व्यक्ति की है, जिसने हालात, समाज और सीमाओं को चुनौती देते हुए प्रेम को अपनी सबसे बड़ी ताकत बनाया और उसी प्रेम के सहारे अपनी पूरी जिंदगी की दिशा बदल दी। यह सिर्फ एक रोमांटिक कथा नहीं, बल्कि साहस, आत्मसम्मान और इंसानी जज़्बे की असाधारण दास्तान है।
साल 1949 में ओडिशा के एक छोटे से गांव में, एक साधारण बुनकर परिवार में प्रद्युम्न कुमार महानंदिया का जन्म हुआ। सामाजिक भेदभाव के कारण बचपन से ही उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया। समाज ने उन्हें अछूत का ठप्पा दे रखा था, जिसके चलते सपने देखना तो दूर, भविष्य के बारे में सोचने का साहस भी उनसे छीन लिया गया था। आर्थिक तंगी और सामाजिक दीवारों के बीच पले-बढ़े पीके को लगता था कि उनकी जिंदगी पहले से तय कर दी गई है।
लेकिन इन सबके बीच एक चीज़ थी जो उन्हें जीवित रखती थी—चित्रकारी। उनकी पेंसिल से उभरती रेखाएं भावनाओं से भरी होती थीं, इतनी सजीव कि देखने वाले को लगता मानो चित्र बोल रहे हों और कह रहे हों कि हर इंसान की कहानी मायने रखती है।
सर्दियों के मौसम में वर्ष 1975 के दौरान, नई दिल्ली के कॉनॉट प्लेस की सड़कों पर पीके राह चलते लोगों के पोर्ट्रेट बनाकर अपनी आजीविका चला रहे थे। तभी एक दिन उनके सामने एक विदेशी महिला आकर खड़ी हुई। हल्के रंग के कपड़े, सुनहरे बाल और सौम्य व्यक्तित्व वाली इस महिला का नाम चार्लोट वॉन शेडविन था, जो स्वीडन से भारत आई थीं। चार्लोट लंदन में पढ़ने वाली छात्रा थीं और अपने दोस्तों के साथ 22 दिनों तक वैन से यात्रा करते हुए प्रसिद्ध हिप्पी ट्रेल के रास्ते भारत पहुंची थीं। पीके की कला के बारे में सुनकर उन्होंने अपना चित्र बनवाने का निर्णय लिया।
जब पीके ने चार्लोट का पोर्ट्रेट बनाना शुरू किया और उनकी आंखों को कागज पर उतारा, उसी क्षण कुछ ऐसा घटित हुआ जो शब्दों में बांधना मुश्किल है। वह चित्र केवल एक स्केच नहीं रहा, बल्कि दो दिलों को जोड़ने वाली शुरुआत बन गया। धीरे-धीरे बातचीत लंबी होती गई, मुलाकातें बढ़ती गईं और दिनों ने हफ्तों का रूप ले लिया। चार्लोट की स्वतंत्र सोच और पीके की सादगी ने दोनों को एक-दूसरे के बेहद करीब ला दिया।
भले ही उनके पास संसाधन कम थे, लेकिन उनके दिल इतने विशाल थे कि वे देशों और संस्कृतियों की दूरी को मिटा सकते थे। अंततः दोनों ने पारंपरिक भारतीय रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह कर लिया। समाज की नजर में यह रिश्ता असामान्य था—एक गरीब भारतीय कलाकार और एक संपन्न स्वीडिश युवती। लेकिन उनके लिए यह रिश्ता पूरी तरह सच्चा और संतुलित था।
कुछ समय बाद परिस्थितियों के कारण चार्लोट को स्वीडन वापस लौटना पड़ा। जाते वक्त उन्होंने कहा कि जब पैसे जुटा लो तो हवाई जहाज़ से आ जाना। पीके ने अपनी खाली जेबों की ओर देखा और मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि वे अपने ही तरीके से आएंगे और बस उनसे इंतजार करने को कहा।
करीब दो वर्षों के लंबे इंतजार के बाद जनवरी 1977 में पीके ने अपने वादे को पूरा करने का फैसला किया। उन्होंने अपनी सारी जमा पूंजी बेच दी—किताबें, कपड़े और जो कुछ भी उनके पास था। इसके बाद उन्होंने एक पुरानी सेकंड हैंड साइकिल खरीदी, जिस पर “फ्लाइंग क्राउ” लिखा था। एक छोटा सा बैग, कुछ जरूरी सामान, एक स्लीपिंग बैग, पेंट्स और ब्रश, और कुल अस्सी डॉलर जो उन्होंने पूरी यात्रा में छुए तक नहीं—इन्हीं के साथ वे दिल्ली से स्वीडन की ओर निकल पड़े।
उनकी यात्रा का मार्ग बेहद चुनौतीपूर्ण था। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, तुर्की, बुल्गारिया, तत्कालीन यूगोस्लाविया, जर्मनी, ऑस्ट्रिया और डेनमार्क से होते हुए उन्होंने अपनी मंजिल तय की। हर दिन वे औसतन सत्तर किलोमीटर साइकिल चलाते। जहां जगह मिली वहीं रात गुजार ली—कभी खुले आसमान के नीचे और कभी अजनबियों के घरों में।
भोजन के बदले वे लोगों के चित्र बनाते थे। इस सफर में उन्हें कई खतरों का सामना करना पड़ा—अफगानिस्तान के बर्फीले पहाड़, ईरान की झुलसाती गर्मी और तुर्की में गंभीर बीमारी। लेकिन कंधार, काबुल और इस्तांबुल में मिले चार्लोट के पत्र उन्हें लगातार हिम्मत देते रहे। हर पैडल के साथ उनके दिल में बस एक ही भावना थी—प्यार रुकता नहीं, मैं आ रहा हूं।
चार महीने और तीन हफ्तों की कठिन यात्रा के बाद मई 1977 में, थके हुए शरीर और धूल से सने कपड़ों के बावजूद आंखों में चमक लिए पीके स्वीडन पहुंचे। सीमा पर मौजूद इमिग्रेशन अधिकारियों को यह देखकर हैरानी हुई कि एक भारतीय नागरिक साइकिल से स्वीडन कैसे पहुंच गया। जब पीके ने अपनी शादी की तस्वीर दिखाई, तो कहानी साफ हो गई। इसके बाद चार्लोट ने दरवाजा खोला। कोई लंबे संवाद नहीं, कोई औपचारिकता नहीं—बस एक सच्चा आलिंगन, मानो यह पल पहले से ही तय था।
स्वीडन पहुंचने के बाद दोनों ने वहां आधिकारिक रूप से दोबारा विवाह किया। शुरुआत में चार्लोट के माता-पिता को इस रिश्ते को स्वीकार करने में कठिनाई हुई, क्योंकि सांस्कृतिक अंतर गहरा था। लेकिन समय के साथ प्रेम ने सभी शंकाओं को परास्त कर दिया। दोनों ने मिलकर घर बसाया, उनके दो बेटे हुए—मैक्स और स्टीफन—और वे साथ-साथ जीवन की हर अवस्था से गुजरे।
आगे चलकर पीके स्वीडन में एक प्रतिष्ठित कलाकार के रूप में स्थापित हुए। उनकी कलाकृतियां यूनिसेफ के ग्रीटिंग कार्ड्स पर प्रकाशित हुईं और दुनिया के कई देशों में उनकी प्रदर्शनियां आयोजित की गईं। आज वे स्वीडन सरकार के कला और संस्कृति से जुड़े सलाहकार के रूप में भी जाने जाते हैं। वर्ष 2012 में ओडिशा की उत्कल कल्चर यूनिवर्सिटी ने उन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की, जबकि ओडिशा सरकार ने उन्हें स्वीडन के लिए ओडिया सांस्कृतिक राजदूत नियुक्त किया।
करीब अड़तालीस वर्षों बाद भी उनका साथ अटूट है। उनकी यह अनोखी प्रेम यात्रा किताबों, पॉडकास्ट और लोकप्रिय चर्चाओं के जरिए आज भी जीवित है। ‘द अमेज़िंग स्टोरी ऑफ द मैन हू साइकिल्ड फ्रॉम इंडिया टू स्वीडन फॉर लव’ जैसी पुस्तकें उनकी कहानी को अमर बनाती हैं, वहीं बॉलीवुड में भी इस प्रेरणादायक जीवन पर फिल्म बनाए जाने की चर्चाएं जारी हैं।
(प्रस्तुति – अर्चना शैरी)



