Awara: ‘आवारा’ की अनसुनी दास्तान: कैसे एक बहस से जन्मी वह फ़िल्म जिसने राज कपूर को विश्व सिनेमा का अमर सितारा बना दिया..
हिंदी सिनेमा के इतिहास में ‘आवारा’ केवल एक फ़िल्म नहीं, बल्कि एक युग, एक विचार और एक वैश्विक सांस्कृतिक घटना रही है। इस कालजयी फ़िल्म की शुरुआत भी अपने आप में बेहद रोचक रही। जब ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘आवारा’ की कहानी तैयार की, तो सबसे पहले वह इसे लेकर मशहूर फ़िल्मकार महबूब खान के पास पहुंचे। उन्होंने पूरी कहानी महबूब खान को सुनाई, जिसे महबूब ने पसंद भी किया।
अब्बास की इच्छा थी कि इस फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर और राज कपूर को पिता-पुत्र के रूप में लिया जाए। लेकिन महबूब खान की सोच इससे अलग थी। वह चाहते थे कि पृथ्वीराज कपूर के बेटे की भूमिका दिलीप कुमार निभाएं। इसकी एक वजह यह भी थी कि महबूब खान एक साल पहले ही 1949 में दिलीप कुमार, राज कपूर और नर्गिस के साथ ‘अंदाज़’ बना चुके थे, जो ज़बरदस्त सुपरहिट रही थी। हालांकि, ‘अंदाज़’ दो नायकों वाली फ़िल्म थी, जबकि ‘आवारा’ पूरी तरह एक ही नायक की कहानी थी।
कास्टिंग को लेकर टकराव और नर्गिस की भूमिका
महबूब खान का मानना था कि पृथ्वीराज कपूर के बेटे का किरदार दिलीप कुमार बखूबी निभा सकते हैं। वहीं, ख्वाजा अहमद अब्बास इस बात पर अड़े हुए थे कि राज कपूर से बेहतर उस भूमिका को कोई नहीं निभा सकता। अब्बास का तर्क था कि असल ज़िंदगी में भी पृथ्वीराज कपूर और राज कपूर पिता-पुत्र हैं, इसलिए परदे पर उनकी मौजूदगी कहानी को और गहराई देगी।
यहीं से महबूब खान और अब्बास के बीच तीखी बहस शुरू हो गई। इस पूरी बातचीत के दौरान नर्गिस भी वहीं मौजूद थीं। मशहूर फ़िल्म समीक्षक और लेखक जयप्रकाश चौकसे ने अपनी पुस्तक ‘राज कपूर की सृजन प्रक्रिया’ में लिखा है कि भले ही नर्गिस को पहला बड़ा ब्रेक महबूब खान ने दिया था, लेकिन ‘बरसात’ के बाद से उनकी नज़दीकियां राज कपूर से काफी बढ़ चुकी थीं।
नर्गिस ने यह पूरी बात राज कपूर तक पहुंचा दी। राज कपूर ने तुरंत ख्वाजा अहमद अब्बास से संपर्क किया और बातचीत इतनी आगे बढ़ी कि राज कपूर ने ‘आवारा’ की कहानी के अधिकार खुद खरीद लिए। इसके बाद जो हुआ, वह सिनेमा के इतिहास में दर्ज है। ‘आवारा’ ने राज कपूर और अब्बास की जोड़ी को अमर कर दिया। यह साझेदारी ‘आवारा’ से शुरू होकर ‘बॉबी’ तक चली। अब्बास खुद कहा करते थे कि ‘बॉबी मेरी नहीं, राज कपूर की फ़िल्म थी।’
आर.के. फ़िल्म्स और बिना समझौते का फैसला
जब राज कपूर ने ‘आवारा’ पर काम शुरू किया, तब तक उन्होंने अपनी कंपनी आर.के. फ़िल्म्स के बैनर तले केवल दो फ़िल्में—‘आग’ और ‘बरसात’—बनाई थीं। ‘बरसात’ की ऐतिहासिक सफलता के बाद राज कपूर ने तय कर लिया था कि ‘आवारा’ के निर्माण में किसी भी तरह का समझौता नहीं किया जाएगा।
ख्वाजा अहमद अब्बास ने एक बार एक बेहद दिलचस्प घटना साझा की। उन्होंने बताया कि एक शाम ‘आवारा’ की शूटिंग के दौरान राज कपूर के एक सहायक ने आकर सूचना दी कि फ़ाइनेंसर एम.जी. द्वारा दिए गए सारे पैसे खत्म हो चुके हैं और अब एक भी रुपया नहीं बचा है। उसी रात फ़िल्म के मशहूर ड्रीम सीक्वेंस की शूटिंग शुरू होनी थी।
अब्बास के मुताबिक, उस हालात में बहुत कम निर्देशक ऐसे होते हैं जो ड्रीम सीक्वेंस शूट करने का साहस दिखा सकें। राज कपूर ने यह जोखिम उठाया। यह दृश्य पूरे तीन महीने में शूट हुआ और इसमें तीन लाख रुपये खर्च हुए—जो उस दौर में एक बहुत बड़ी रकम थी।
एक प्रगतिशील कहानी, जिसने दुनिया को छुआ
‘आवारा’ एक सामाजिक रूप से बेहद प्रगतिशील कहानी थी। फ़िल्म में एक वकील अपनी पत्नी को घर से निकाल देता है और आगे चलकर वही व्यक्ति जज बन जाता है। दूसरी ओर, उसका बेटा गलत संगति में पड़कर अपराधी बन जाता है। अंततः अदालत में बेटे और पिता का आमना-सामना होता है और कहानी मानवीय करुणा के साथ आगे बढ़ती है।
कई फ़िल्म पत्रिकाओं के अनुसार, ‘आवारा’ भारत में बनी वह फ़िल्म है जिसे दुनिया में सबसे ज़्यादा देखा गया। यह पहली विदेशी फ़िल्म थी, जिसे सोवियत संघ में राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुआ। उस समय रूस में लोग अपने बच्चों के नाम राज और रीता रखने लगे थे।
सोवियत संघ, चीन और ‘आवारा हूं’ की गूंज
दूसरे विश्व युद्ध की त्रासदी से उबर रहे रूस के लोगों को ‘आवारा’ के नायक में अपना ही अक्स दिखाई दिया। राज कपूर का वह गीत -“आबाद नहीं, बर्बाद सही, गाता हूं खुशी के गीत मगर…” लाखों दिलों की आवाज़ बन गया।
फ़िल्म का टाइटल सॉन्ग ‘आवारा हूं’ दुनिया भर में लोकप्रिय हुआ। गीतकार शैलेंद्र की बेटी अमला शैलेंद्र ने एक बार बीबीसी को बताया कि जब वे दुबई में रहती थीं, तब एक तुर्कमेनिस्तानी पड़ोसी उनके घर आया और रूसी भाषा में ‘आवारा हूं’ गाने लगा, यह कहते हुए कि यह गीत उनके पिता ने लिखा है।
1950 के दशक में जब पंडित नेहरू सोवियत संघ गए, तो एक सरकारी भोज में रूसी प्रधानमंत्री निकोलाई बुल्गानिन ने मंत्रियों के साथ ‘आवारा हूं’ गाना शुरू कर दिया, जिसे देखकर नेहरू चकित रह गए।
यहां तक कि नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक अलेक्ज़ेंडर सोल्ज़ेनित्सिन की किताब ‘द कैंसर वार्ड’ में भी एक दृश्य है, जहां नर्स मरीजों को ‘आवारा हूं’ सुनाकर उनका दर्द कम करने की कोशिश करती है।
चीन से तुर्की तक राज कपूर की छाया
1954 में राज कपूर और नर्गिस ‘आवारा’ के प्रदर्शन के दौरान सोवियत संघ गए, जहां उन्हें देखने के लिए सड़कों पर भीड़ उमड़ पड़ी। उसी समय राज कपूर को चीन जाने का न्योता मिला, लेकिन वे जा नहीं सके।
साल 1996 में जब रणधीर कपूर और ऋतु नंदा चीन पहुंचे, तो वहां के लोगों ने उन्हें देखकर ‘आवारा हूं’ गाना शुरू कर दिया—बिना यह जाने कि वे राज कपूर के बेटे-बेटी हैं। कहा जाता है कि माओ त्से तुंग की पसंदीदा फ़िल्म भी ‘आवारा’ थी, जबकि तुर्की में इस पर एक टीवी सीरियल तक बना।
ऋतु नंदा की किताब ‘राज कपूर स्पीक्स’ के अनुसार, 1993 में रूस के राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन ने उनसे मुलाकात के दौरान लिखा था—
“मैं आपके पिता से प्रेम करता था। वह आज भी हमारी स्मृतियों में जीवित हैं।”
आखिर रूस में इतनी लोकप्रिय क्यों हुई ‘आवारा’?
ख्वाजा अहमद अब्बास ने एक बार सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव से पूछा कि ‘आवारा’ रूस में इतनी लोकप्रिय क्यों हुई। ख्रुश्चेव का जवाब था—
“दूसरे विश्व युद्ध में रूसी जनता ने सबसे अधिक पीड़ा झेली। हमारी फ़िल्में उन ज़ख्मों को कुरेदती रहीं, लेकिन राज कपूर ने ‘आवारा’ के ज़रिए हमें उम्मीद दी और दर्द भुलाने का रास्ता दिखाया।”
‘आवारा’ 14 दिसंबर 1951 को रिलीज़ हुई थी—ठीक उसी दिन जब राज कपूर का 27वां जन्मदिन था। आज राज कपूर का 101वां जन्मदिन है और ‘आवारा’ फ़िल्म को 74 वर्ष पूरे हो चुके हैं। यह फ़िल्म आज भी इस बात का प्रमाण है कि सच्ची कला सरहदों की मोहताज नहीं होती।
(प्रस्तुति -अज्ञात वीर)



