बिहार चुनाव में इस बार सबसे ज्यादा चर्चा इसी बात की हो रही है कि आखिर यादव बहुल इलाकों में आरजेडी को इतनी भारी हार क्यों मिली। जिन क्षेत्रों में यादव मतदाता लगातार आरजेडी का साथ देते रहे थे, उन्हीं सीटों पर इस बार पार्टी को बड़ा नुकसान हुआ।
यादव समुदाय को लालू प्रसाद यादव और आरजेडी का सबसे मज़बूत और भरोसेमंद वोटबैंक माना जाता है, लेकिन इस चुनाव में यही आधार डगमगाता नज़र आया। पार्टी ने इस बार 67 यादव उम्मीदवारों को टिकट दिया था, लेकिन इनमें से सिर्फ 10 ही जीत हासिल कर पाए।
बिहार में यादवों की आबादी करीब 14% है, और लगभग 70 से ज्यादा सीटों पर उनका असर निर्णायक माना जाता है। 2020 के चुनाव में यादव मतदाताओं ने खुलकर आरजेडी को समर्थन दिया था, लेकिन इस बार हालात बिल्कुल उलट दिखे। बांका, सूर्यगढ़ा, दानापुर, छपरा, अलीनगर, महुआ, सीवान, खजौली, गायघाट, आरा, सीतामढ़ी से लेकर सोनपुर— लगभग हर अहम यादव प्रभाव वाली सीट पर आरजेडी पिछड़ गई। तेजस्वी यादव भी अपनी राघोपुर सीट पर बहुत मुश्किल से जीत पाए।
विशेषज्ञों का मानना है कि यादव इलाकों में आरजेडी की हार का सबसे बड़ा कारण नीतीश सरकार की 10 हज़ारी योजना रही। चुनाव से ठीक पहले सरकार ने 1.5 करोड़ महिलाओं के बैंक खातों में 10-10 हजार रुपये भेजे। इस योजना का इतना गहरा असर पड़ा कि जाति की सीमाएं टूट गईं, और बड़ी संख्या में यादव महिलाओं ने भी एनडीए को वोट दिया। पत्रकार बीरेंद्र यादव के मुताबिक, “जब फायदा सबको मिला, तो यादव महिलाएं क्यों नहीं बदलतीं?”
यादवों की तरह ही मुस्लिम वोटर भी इस बार आरजेडी से दूर होते दिखाई दिए। बिहार की राजनीति में वर्षों से MY समीकरण— यानी मुस्लिम और यादव गठजोड़— आरजेडी की सबसे बड़ी ताकत माना जाता रहा है। लेकिन सीमांचल और मिथिलांचल की मुस्लिम बहुल सीटों पर महागठबंधन को भारी नुकसान उठाना पड़ा। महागठबंधन ने 29 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें सिर्फ 4 जीत पाए। इसके उलट, एनडीए ने 5 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था, और उनमें से 4 चुनाव जीत गए। वहीं ओवैसी की एआईएमआईएम ने 5 सीटें जीतकर मुस्लिम वोटों में सीधी सेंध लगा दी।
बिहार चुनाव 2025 के परिणाम साफ बताते हैं कि आरजेडी को सबसे ज्यादा चोट उसी क्षेत्र में लगी, जिसे वह अपना पारंपरिक मजबूत किला मानती थी। यादव और मुस्लिम— दोनों ही बड़े वोटबैंक में बड़ी दरार उभरकर सामने आई है। तेजस्वी यादव के लिए यह चुनाव सिर्फ हार नहीं है, बल्कि यह संकेत भी है कि उनका मूल राजनीतिक आधार कमजोर हो रहा है, और उन्हें अपनी रणनीति दोबारा सोचनी होगी।



