Chhava: ऐतिहासिक फिल्मों, स्थलों और शोध में मेरी गहरी रुचि रही है, क्योंकि वे अनसुनी और अनसुलझी गाथाओं से परिचित कराते हैं, और कल्पना को यथार्थ से जोड़ देते हैं। मराठी उपन्यास साहित्य इतिहास का वह दावा है जिसने दबी हुई चिंगारियों को लपटें दी हैं। यही साहित्य की आत्मा है—जो अमिट है। इस दृष्टि से यह फिल्म अपने अंतिम दृश्य तक प्रभावशाली बनी रही।
समसामयिक संदर्भों में, जब आज के नायक रील, फास्ट फूड, नशे और अय्याशी की ओर बढ़ते दिखाए जाते हैं, या हिंसा को महिमामंडित करने का दौर चल पड़ा है, तो ऐसी फिल्मों की जरूरत और भी बढ़ जाती है। शिवाजी महाराज, गुरु तेग बहादुर और शेर के शावक जैसे नायकों को इतिहास में दबा दिया गया, जबकि सच्चे शौर्य, मर्दानगी और राष्ट्रभक्ति की परिभाषा यही हैं।
अक्षय खन्ना के अभिनय की जितनी प्रशंसा की जाए, कम होगी। उनकी झुकी कमर, खूसट और क्रूर आँखें, और क्रोशिया बुनते हुए दिखाया जाना मेकअप आर्टिस्ट और निर्देशक की उत्कृष्टता को दर्शाता है। अन्यथा, “पद्मावत” में तो खलनायक को नायक रूप में दिखा दिया गया था, और “जोधा अकबर” में अकबर को ऐसा प्रदर्शित किया गया कि वह रितिक रोशन जैसा सौम्य दिखने लगा। वास्तविकता में, भित्ति चित्रों में अंकित अकबर का थुलथुल शरीर और सफेद बाल ही मेरी स्मृति में हैं।
रश्मिका मंदाना की भावपूर्ण आँखों ने उसे वास्तविक नायिका की तरह प्रस्तुत किया। उसके ठहरे हुए संवाद और नव रस से साधे भाव अब भी स्मृति में हैं। जब नायक को यातना की पराकाष्ठा तक पहुँचते देखा, तो मेरी मुट्ठियाँ स्वतः जकड़ गईं। घावों पर नमक छिड़कते मुगल और उसकी लीचड़, क्रूर बेटी के प्रपपोनोति घृणा उमड़ आई।
मेरा छोटा बेटा शायद उतना संवेदनशील नहीं था, तभी विस्मय में था कि पूरी फिल्म में न तो पॉपकॉर्न मिला, न बर्गर। उसे यह भी समझ नहीं आया कि मेरे चेहरे पर दर्द क्यों बना रहा। सच कहूँ तो, यातना के दृश्यों में मैंने स्वयं को कोसा कि मेरे जैसे भावुक दर्शकों को यह फिल्म उतनी ही पीड़ा पहुँचा रही होगी।
चाहे दिव्या दत्ता की सौतेली माँ की निर्दयता हो या भव्य बनारसी परिधान, तत्कालीन स्थापत्य कला, विशाल किले, बड़े द्वार, खान-पान के बर्तन—मेरी आँखों ने उस युग की हर बारीकी को आत्मसात किया। एक माँ की गोद से वंचित बालक की संघर्षगाथा को देखकर अपने बच्चों के लाड़-प्यार से भी वितृष्णा हो गई।
सच तो यह है कि आज के युवा बिना संघर्ष के वह सब पा रहे हैं, जो कभी राजा-महाराजाओं के लिए भी दुर्लभ था। फिल्म के बाद मन में इतने भाव उमड़े जितने आकाश में बादल भी न हों।
लक्ष्मण उतेकर ने एक ऐसी फिल्म बनाई है, जो न केवल संभाजी की वीरता को दर्शाती है, बल्कि उन कारणों को भी उजागर करती है जिनके चलते धोखा, ईर्ष्या और गद्दारी ने मुगलों की शक्ति बढ़ाई और अन्याय बार-बार विजयी होता गया।
आज भी वही हो रहा है—गुटबाजी से अच्छाई को कुचल देना। उफ… मैं केवल दर्शक बनकर सब होते देखती रही, पर इस दुःख को केवल महसूस कर छोड़ देना पर्याप्त नहीं है, इसे दर्ज करना भी आवश्यक है।
अपनों के खून से रंगे हाथों वाले औरंगज़ेब के नाम पर बने मार्ग और स्मारकों को मैं अस्वीकार करती हूँ। उसके प्रशंसकों को भी उतनी ही घृणा से देख सकती हूँ।
औरंगज़ेब की बेटी मख़्फ़ी पर्दे में कविता लिखती थी, जायसी, देव, वृंद, यहाँ तक कि शाहजहाँ भी ग़ज़लें कहता था, पर वीर रस की कविता, जो समय की माँग थी, संभाजी राज ही लिखते थे। मुग़लों ने श्रृंगार रस को चुना, पर वीर रस ही उस समय का असली यथार्थ था—और आज भी है।
संजय लीला भंसाली को यह फिल्म देखकर अगली ऐतिहासिक कृति बनाने की प्रेरणा लेनी चाहिए। आशुतोष राणा की प्रभावशाली आँखें ही उनकी सबसे बड़ी ताकत हैं, जिनमें वफादारी और सच्चाई को बिना बोले भी उकेरने की क्षमता है।
“जैसा खून, वैसी नस्ल”—इस सत्य को स्वीकारने में झिझक नहीं होनी चाहिए। साथ ही, आज की माताओं को भी जिजाबाई जैसी माँ बनने का प्रयास करना चाहिए। यह फिल्म केवल मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि सोई हुई संवेदना को जगाने के लिए देखी जानी चाहिए।
(मेनका त्रिपाठी, हरिद्वार)