Devendra Sikarwar writes: ..लेकिन मैं… मैं न तो हारा हूँ और न हार मानूँगा क्योंकि पक्ष बदलने का अर्थ है कृष्ण में अविश्वास और कृष्ण में अविश्वास का अर्थ है धर्म में अविश्वास..
महाभारत युग में मथुरा में पंचजन आर्यों में से एक प्रसिद्ध यदु जनों का ‘यादव गणसंघ’ एक औसत दर्जे की शक्ति था और ऊपर से कोढ़ में खाज यह हुई कि उग्रसेन के ‘जारज पुत्र’ कंस ने मगध के जरासंध की अधीनता स्वीकार कर मथुरा को दमनकारी ‘राजतंत्र’ में बदल दिया।
ऐसे में मथुरा के चारों ओर बसे अभीर आर्यों के एक गाँव में पल रहे एक बालक ने विद्रोह का ध्वज ऊँचा किया।
केवल कंस के विरुद्ध ही नहीं बल्कि धार्मिक शोषण, सामाजिक-आर्थिक भेदभाव और यहां तक कि देव महाशक्ति इन्द्र के विरुद्ध भी।
उसने साथी गवालों और ग्वालिनो को वेल्लाकलि मार्शल आर्ट को रास नृत्य के प्रशिक्षण देकर अजेय ‘नारायणी सेना’ में बदल दिया।
उसने इन्द्र का गर्व चूर कर संधि करने पर विवश कर दिया।
उसने स्वेच्छाचारी नाग, यक्ष और असुरों को ठिकाने लगाया।
उसने कर्मकांडी शोषण के लिए पुरोहितों को फटकारा और अहीरो को पुनः वैदिक युग की प्रकृतिपूजा की ओर लौटाया।
अंततः बालक किशोर हुआ और उसने कंस का वध कर दिया और यादवों व अहीरों ने उसको अपना मुक्तिदाता माना।
लेकिन असल में वे सब डरे हुए थे।
उन्हें डर था कंस के समर्थको का,
उन्हें डर था जरासंध की सेना का,
उन्हें डर था सिंधु पार बसे यवनों का,
लेकिन वह किशोर निर्भय था।
उसने दिया महामंत्र, “धर्मो रक्षित रक्षितः”
“तुम धर्म की रक्षा करो, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा।”
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किशोर ने कंस के समर्थकों का वध कर दिया,
उसने जरासंध को भी परास्त कर दिया,
यहाँ तक कि कालयवन को सेना सहित भयंकर मृत्यु दी।
बालक किशोर से युवा हुआ और उसने जाना कि धर्म के लिए ‘अर्थ’ का होना जरूरी है।
-उसने यादव गणसंघ को द्वारिका के जलदुर्ग में सुरक्षित बनाया।
-उसने यादवों को व्यापार, वाणिज्य, कृषि व गोपालन से समृद्ध बनाया।
-उसने चार अक्षोहिणी सेना का गठन कर भारत के चारों कोणों में उनकी छावनियां बनाई।
अब यदु गणसंघ भारत ही नहीं विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति थी जिसके सम्मुख कोई टिक नहीं सकता था।
धर्म के साक्षात स्वरूप इस युवक को संसार कृष्ण के नाम से जानने लगा था।
लेकिन समृद्धि व सुरक्षा यदु गणों को रास नहीं आई
सत्राजित जैसे व्यापारी टैक्स रहित व्यापार चाहते थे।
अक्रूर जैसे राजनेता जबरन वसूली और ब्यूरोक्रेसी पर नियंत्रण चाहते थे।
बलराम जैसे अपने इस बात से रुष्ट थे कि सदा कृष्ण की बात क्यों मानी जाती है।
कृष्ण सब देख समझ रहे थे कि अब यादव गणों को धर्म एक बोझ लगने लगा है पर वह चुप थे क्योंकि हस्तिनापुर में अधर्म का साक्षात स्वरूप दुर्योधन पनप रहा था जिसे शकुनि जैसी पश्चिमी शक्ति का साथ, भीष्म जैसे दुविधाग्रस्त धुरंधर का, द्रोण जैसे स्वार्थी बुद्धिजीवी और कर्ण जैसे हीनभावना के शिकार व्यक्तियों का साथ मिला हुआ था।
केवल द्वारिका और कृष्ण बाधा थे।
कृष्ण के विरुद्ध प्रवाद फैलाये जाने लगे।
लोगों को कृष्ण और पाण्डवों में ढेरों कमियां दिखाई देने लगीं।
सामान्य मस्तिष्क के, हल्के चरित्र के लोग और लाभार्थी लोग पाला बदलने लगे।
बिके हुए लोग कृष्ण को नायक के स्थान पर खलनायक और दुर्योधन को नायक चित्रित करने लगे।
और फिर दुर्योधन को एक सुनहरा मौका और मिला।
द्वारिका में सांब जैसों के रूप में पैदा हुई Gen Z जिन्हें कृष्ण के आदर्श मूर्खतापूर्ण लगते थे।
दुर्योधन ने बलराम को पहले ही फुसला लिया था और अब सांब को अपनी बेटी ब्याह कर कृष्ण के घर में घुसपैठ कर ही ली।
परिणाम यह हुआ कि महाभारत के जिस युद्ध में समस्त यादव गणों को धर्म के पक्ष में खड़ा होना था वह दुर्योधन के पक्ष में खड़े हो गये क्योंकि नारायणी सेना में भी अब Gen Z की पीढ़ी का आधिकय था जिसने कंस, जरासंध और कालयवन की बर्बरता की सिर्फ कहानियाँ सुनी थीं, उन्हें भोगा नहीं था।
कृष्ण अकेले खड़े रह गये।
उन्हें अकेले रह ही जाना था क्योंकि धर्म अंततः अकेला ही रह जाता है।
लेकिन कृष्ण ने यह दिखाया कि अकेला और निःशस्त्र धर्म भी बड़ी से बड़ी सेनाओं पर भारी पड़ता है।
अधर्म का नाश हुआ लेकिन कृष्ण कुछ भी नहीं भूले थे।
उन्होंने द्वारिका के यादवों को कौरवों की ही तरह दण्डित किया और उनका नाश कर संसार को संदेश दिया कि धर्म की पुकार से मुँह चुराने वालों का अन्तिम परिणाम क्या होता है।
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चुनाव आज भी वही है।
मौत तो तय है लेकिन चुनना तुम्हें है।
इस राष्ट्र की राष्ट्रीयता के आधार, मानवता के कल्याणकारी हिंदुत्व के पक्ष में लड़कर संतोष की अंतिम सांस के साथ मरना है या मुस्लिमों और पाप की परछाइयों के नेता राहुल के साथ रहकर टूटी जांघोँ के साथ घिसट-घिसट कर मरना है।
कल तक हिंदुत्व का झंडा थामे कुछ बिक चुके हैं और कुछ बिकने की तैयारी में हैं, कुछ थक चुके हैं और कुछ मानसिक रूप से परास्त हो चुके हैं।
लेकिन मैं… मैं न तो हारा हूँ और न हार मानूँगा क्योंकि पक्ष बदलने का अर्थ है कृष्ण में अविश्वास और कृष्ण में अविश्वास का अर्थ है धर्म में अविश्वास।
नहीं, ऐसा संभव ही नहीं क्योंकि —
“यतो कृष्णस्ततो धर्मः,यतो धर्मस्ततो विजयः!”
बिना शंका, बिना अपेक्षा आप किसके साथ हैं?
हिंदुत्व के साथ या कांग्रेस के साथ?
(देवेन्द्र सिकरवार)