India & World: 1963 मे अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनीडी की हत्या कर दी गयी और इसी के साथ भारत अमेरिका के संबंधो मे दरार आनी शुरू हुई। इसके विपरीत सोवियत संघ मे निकिता ख़्रुश्चेव का शासन था जो प्रो इंडिया थे।
1965 मे भारत पाकिस्तान का युद्ध हुआ अमेरिका और सोवियत दोनों ही दूर रहे हालांकि सोवियत ने अंत मे समझौता करवाया और भारत जीता हुआ युद्ध हार गया। लाहौर हमारी मुट्ठी मे था, कायदे से तो लाहौर हमें मिलना चाहिए था मगर उसके बदले हम POK भी नहीं ले सके।
शास्त्री जी की मृत्यु सोवियत की कुटिलता की ही निशानी थी। इस युद्ध के बाद अयूब खान समझ गया कि भारत को अकेले नहीं हराया जा सकता इसलिए अमेरिका की गैंग मे दाखिला ले लिया।
जवाब मे इंदिरा गाँधी ने सोवियत खेमा तो जॉइन नहीं किया मगर सोवियत संघ के साथ रक्षा समझौता कर लिया। इसी समझौते की वज़ह से सोवियत ने 1971 के युद्ध मे भारत की रक्षा तो की मगर 1965 की तरह इस बार भी हम ठगे गए।
सोवियत ने POK भारत को नहीं मिलने दिया, दरसल सोवियत की भलाई इसमें थी कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध चलता रहे ताकि भारत सोवियत से हथियार खरीदता रहे। यही बात अमेरिका की पाकिस्तान के संदर्भ मे थी।
भारत के लोग समझ रहे थे कि हम अमेरिका सोवियत के बीच सैंडवीच बन रहे है मगर ये समझ पाकिस्तान पर लागू नहीं थी क्योंकि पाकिस्तान को नेता नहीं सेना चला रही थी और सेना के बड़े अफसरों का फायदा तब ही था ज़ब युद्ध होते रहे।
सोवियत की दोस्ती भारत को भी महँगी तो पड़ रही थी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया का वर्चस्व बढ़ रहा था। कम्युनिस्टो ने भारत की यूनिवर्सिटीज, सिनेमा और दफ़्तरो पर कब्जा जमा लिया था। भारतीय इतिहास मे भारत के ही खिलाफ जहर भरा जा रहा था।
यदि आप पुरानी फिल्मे देखोगे तो मजदूरों की हड़ताल, लाल झंडे, मुख्य किरदारों मे नास्तिकता ये सब बहुतायत देखने को मिलेंगे। 1975 तक सोवियत का भारत पर इतना प्रभाव था कि दिल्ली की गली गली मे सोवियत के जासूस घूम रहे थे।
भारत मे आंतरिक आपातकाल लगाने के लिये चिंगारी सोवियत ने ही भरी थी और भारत के संविधान मे जोड़ा गया सोशलिस्ट शब्द इस तथ्य का प्रमाण है। सोवियत ने अपनी विचारधारा सोशलिस्म का टैग लगाकर ही बेची है।
कष्ट समय मे विधाता ने भारत की मदद की, सोवियत की बुद्धि भ्रष्ट हुई और उसने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया। ये आक्रमण सोवियत संघ को इतना महँगा पड़ा कि 1991 मे वो दिवालिया होकर खंड खंड मे बंट गया।
विधाता का दूसरा खेल भी देखिये उस समय तक सोवियत का हितैषी गाँधी परिवार सत्ता से बाहर हो गया और नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री थे, जो कि कम्युनिस्ट विचारधारा के विरोधी थे। सोवियत के एजेंट्स डीएक्टिवेट किये गए।
1991 के बाद भारत ने उठना शुरू किया और आत्मनिर्भर बनने की दिशा मे काम हुआ।
यदि राम मंदिर के निर्णय को आप एक बिंदु माने तो मैं कहूंगा यह वो निर्णय था जिसके बाद आप कह सकते है कि व्यवस्था मे से सोवियत की छाप हट गयी। ये निर्णय नहीं अपितु नए भारत का पहचान पत्र था।
आप सोचकर देखो सोवियत संघ 1991 मे बिखरा लेकिन भारत से उसका प्रभाव 2019 मे गया। बल्कि अब भी कही कही उसकी छाप तो दिखाई देती है। जैसे भारत की व्यवस्था मे सोवियत घुसा हुआ था वैसे ही पाकिस्तान की व्यवस्था मे अमेरिका था।
सोवियत लूट गया मगर अमेरिका नहीं, यही कारण है कि आज भी पाकिस्तान मे तख्तापलट होते रहते है क्योंकि अमेरिका इतना अंदर उतर चुका है कि पाकिस्तान को अपने इशारे से चला सके। ये भारत के साथ भी होता मगर समय रहते सोवियत संघ टूट गया और हम बच गए।
इसके उलट अमेरिका और भारत के रिश्ते सुधर गए, अब तो स्थिति ऐसी है कि अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आते है और बिना पाकिस्तान को छुए वापस चले जाते है।
इस पूरी कथा का सार ये है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति मे कोई दोस्त या दुश्मन नहीं होता, दूसरा फ्री मे कुछ नहीं मिलता। सोवियत ने 1971 मे हमारी रक्षा की मगर उसकी क़ीमत हमने समाज़वाद का कैंसर पालकर चुकाई।
आज भी तमिलनाडु मे DMK, केरल मे CPI, बिहार मे RJD और उत्तरप्रदेश मे सपा का वर्चस्व इस बात का सबूत है कि समाज़वाद का जहर हमारे कई राज्यों मे कितना गहरा है और ना जाने इससे मुक्ति कैसे मिलेगी?
उपरोक्त राज्य के नागरिको को समझना होगा कि इस समय हमारी जो आबादी है उसमे हम समाज़वाद अफोर्ड नहीं कर सकते। हमें युद्ध स्तर पर उद्योग धंधे चाहिए, इस समय तो यदि कोई व्यक्ति एक नौकरी भी पैदा कर दे तो वो देवता से कम नहीं है।
इसलिए समाज़वाद का जितना जल्दी हो सके त्याग कर दीजिये।
(परख सक्सेना)