Indian Army: Madhusudan Surve की कहानी पढ़िये और जानिये कि जीवन के योद्धा कितने बड़े नायक होते हैं..
कुछ बाते जो दहला देंगी जैसे – ”जब मैं आर्टिफिशियल पैर लगा लेता हूं तो लगता नहीं है कि मैं दिव्यांग हूं। हालांकि, कई बार ज्यादा देर बाद दर्द होने लगता है। मैंने अपने शरीर पर 11 गोलियां खाई हैं।
6 दिनों तक कोमा में रहा हूं। कई महीने जिंदगी और मौत के बीच जंग लड़ा हूं, तब जाकर इस स्थिति में हूं। सेहत का ध्यान रखना होता है। मेरी डाइट फिक्स है। दो गोलियां पेट में लगी थीं। पूरी आंत बाहर निकल आई थी। अभी जो आंत है, वो आर्टिफिशियल है।” – पैरा कमांडो मधुसूदन
ये शब्द उन्ही के लिखे हुए है उनकी कहानी यहाँ केवल शेयर हो रही है:
”सेना में जाने के अलावा आज तक मैंने कुछ दूसरा सोचा ही नहीं। मां तो चाहती ही थीं कि मैं सेना में जाऊं, मैंने अपने परिवार में भी यही माहौल देखा था। परिवार में आलम ये था कि एक छुट्टी से वापस ड्यूटी पर जाता, तो दूसरा छुट्टी पर आता। यही सिलसिला चलता रहता था।
1992 की बात है। मां मुझे रत्नागिरी से मुंबई सेना में बहाली के लिए लेकर आईं। उस वक्त मेरी उम्र तकरीबन 20-21 साल रही होगी। मेरा सिलेक्शन सेना में हो गया। आर्मी की सामान्य ट्रेनिंग के बाद मुझे पैरा कमांडो की ट्रेनिंग के लिए भेजा गया।
1999 की बात है। मेरी शादी को बमुश्किल 3 साल हुए थे। आज भी याद है- मुझे छुट्टी पर घर आए हुए एक-दो दिन ही हुए थे। तभी घर पर टेलीग्राम आया कि अगले दिन श्रीनगर रिपोर्ट करना है। छुट्टी कैंसिल हो गई है। कारगिल के लिए मूव करना है।
मुझे लग रहा था कि मैंने तो अभी-अभी सेना जॉइन की है। मुझे क्यों लड़ाई के लिए बुलाया जाएगा। मैंने अपनी पत्नी को बताया। शादी को कुछ साल ही हुए थे। हर किसी की अपनी भावनाएं होती हैं। मुझे आज भी याद है- जब मैं कारगिल के लिए जा रहा था, तो पत्नी सिर्फ मुझे निहार रही थी।”
वह कारगिल की लड़ाई का एक चित्र यहाँ ऐसे दे रहे है:
”कारगिल वाली बात , हम लोग घाटी में नीचे की ओर से चढ़ाई कर रहे थे और पाकिस्तानी सेना हाइट पर थी…। तभी हमारे कैंप पर बम आ गिरा। मेरे 4 साथी जवान शहीद हो गए। उनके शरीर के चीथड़े-चीथड़े उड़ गए।
एक साथी के शरीर का मांस मेरे शरीर पर आ गिरा। उसके बाद हमने फिर से चढ़ाई शुरू की। आखिरकार पाकिस्तानी सैनिकों को भागना पड़ा। राशन पहुंचाने के बहाने हमने दर्जनों पाकिस्तानी सैनिकों की गर्दन को धड़ से अलग कर दिया।
कारगिल जंग में जीत भारत की हुई। हमारी ही बटालियन ने सबसे पहले फतह हासिल की थी। जिस चोटी को पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया था, वहां हमने तिरंगा फहराया।”
”2005 की बात है। मणिपुर में दर्जनों आतंकियों ने घुसपैठ की थी। वे महिलाओं और छोटे बच्चों को शिकार बना रहे थे। जब हमारी बटालियन को मूव करने के लिए ऑर्डर मिला, तो हम धीरे-धीरे गुप्त तरीके से लोकेशन के लिए रवाना हुए। इस टीम को मैं ही लीड कर रहा था।
हम लोग अपनी जानकारी छिपाकर इन लोगों के बीच पहुंचे थे। एक दिन की बात है। मौसम खराब हो रहा था। आतंकियों के कुछ गुर्गे एक घर में छुपकर बैठे थे। हमने बम फेंकना शुरू किया। इसी बीच जितने भी आतंकी थे, वो यहां आने लगे।
हमारे बीच जंग छिड़ गई। दोनों तरफ से फायरिंग हो रही थी। इसी दौरान सामने से मेरे एक पैर में 7 गोली, दूसरे में 2 गोली और पेट में 2 गोली- कुल 11 गोलियां लगीं। मैं जमीन पर गिरा था।”
पैरा कमांडो मधुसूदन की आँखों सामने वो पूरी घटना तैर रही हैं। एक सांस में वो सारी बातें कहे जा रहे हैं। वो बताते हैं –
‘‘एक पैर से तो खून ही नहीं बंद हो रहा था। आखिर में मैंने अपने साथी से कहा- इस पैर को काट दो, ताकि इसे बांध तो सकें। सभी साथी शॉक्ड थे, कोई सामने नहीं आया तब मैंने अपने हाथ से अपने एक पैर को काट दिया।
किसी तरह से मॉर्फिन इंजेक्शन के सहारे पूरी रात कटी। नहीं तो, दर्द से ही मर जाता। अहले सुबह हेलिकॉप्टर से हमें रेस्क्यू किया गया। घरवालों को तो पता भी नहीं था कि ऐसा कुछ हुआ है। मैंने बताया था कि फुटबॉल खेलने से चोट लग गई है। कुछ दिनों के लिए कॉल नहीं कर पाऊंगा।
वो तो यूनिट ने मुझे डेंजर लिस्ट में डाल दिया था। मैं कब तक हूं, कब नहीं… पता नहीं। घर पर टेलीग्राम भेजा गया, तब घर के सभी लोगों को पता चला। मैं 6 दिन तक कोमा में रहा। मुझे कुछ भी याद नहीं कि क्या हुआ, क्या नहीं।
जब होश आया, तो देखा कि गेट में लगे कांच के उस तरफ पूरा परिवार खड़ा है। रो रहा है। किसी को यकीन नहीं था कि मैं बच भी पाऊंगा। जितनी पीड़ा मैंने सही, कभी-कभी तो लग रहा था कि इससे अच्छा शहीद हो जाता।
हर बार मन में बस एक ही ख्याल आता है। एक मधुसूदन को जन्म उसकी मां ने दिया था। दूसरा जन्म भारत माता की खातिर हुआ। नहीं तो जो स्थिति थी, कौन ही बचता।”
(पैरा कमांडो मधुसूदन)