Story:..पेन्टर आया तो मेरा बेटा, जो अपने दादाजी से बहुत जुड़ा हुआ था, बोला— “इन उंगलियों के निशान मत मिटाना, ये दादाजी की यादें हैं।”..
पिताजी अब उम्रदराज़ हो गए थे। चलते समय उनका संतुलन बिगड़ जाता, इसलिए वे दीवार को सहारा बना लेते।
जहाँ-जहाँ उनकी हथेलियाँ दीवार से टकरातीं, वहाँ पेंट घिस जाता और दीवार पर उनकी उंगलियों के हल्के-हल्के निशान रह जाते।
मेरी पत्नी अक्सर कहती—“दीवार कितनी गंदी दिखती है, कुछ तो करो।”
मैं चुप रहता, पर अंदर ही अंदर खीज भी महसूस करता।
एक बार पिताजी ने सिर दर्द के कारण बालों में तेल लगाया।
उस दिन चलते-चलते दीवार पर उनके हाथ से तेल के दाग पड़ गए।
पत्नी की झुंझलाहट और बढ़ गई। उसने मुझसे कहा—“अब तो हद हो गई।”
गुस्से में मैंने भी पिताजी को डाँट दिया। कहा—“आप दीवार मत पकड़ा करो, बिना सहारे चलने की कोशिश कीजिए।”
मेरे शब्दों ने उनका मन तोड़ दिया। वे चुप हो गए, और उनके चेहरे पर गहरी उदासी उतर आई।
उस दिन के बाद उन्होंने सचमुच दीवार पकड़ना छोड़ दिया।
लेकिन एक दिन वे अचानक लड़खड़ाकर गिर पड़े।
गिरने के बाद फिर कभी ठीक से खड़े नहीं हो पाए।
कुछ ही महीनों में वे हमें हमेशा के लिए छोड़कर चले गए।
मैं अंदर ही अंदर अपराधबोध से भर गया।
काश उस दिन मैंने कठोर शब्द न कहे होते… शायद वे और कुछ साल हमारे साथ रहते।
कई साल बीते। घर की पुताई का समय आया।
पेंटर आया तो मेरा बेटा, जो अपने दादाजी से बहुत जुड़ा हुआ था, बोला—
“इन उंगलियों के निशान मत मिटाना, ये दादाजी की यादें हैं।”
पेंटर भावुक हो गया। उसने कहा—
“इन निशानों को मैं सजाऊँगा, इन्हें और भी खास बना दूँगा।”
और सचमुच उसने उन हाथों के निशानों को एक सुंदर डिज़ाइन का रूप दे दिया।
धीरे-धीरे वे दीवारें हमारे घर की शान बन गईं।
आने वाला हर मेहमान कहता—“ये तो अनोखा और दिल छू लेने वाला सजावट है।”
समय का पहिया घूमता है।
अब मैं भी बूढ़ा हो चुका हूँ।
पैरों में कमजोरी है, चलते समय दीवार का सहारा लेता हूँ।
एक दिन मैंने याद किया कि मैंने अपने पिता को क्या कहा था।
मन में अपराधबोध जागा और मैंने बिना सहारे चलने की कोशिश की।
लेकिन तभी मेरा बेटा दौड़कर आया और बोला—
“पापा, दीवार पकड़ लीजिए… कहीं गिर न जाएँ।”
उसके शब्द सुनते ही मेरी आँखें भर आईं।
तभी मेरी पोती नन्हें कदमों से आई और मासूमियत से बोली—
“दादा जी, दीवार क्यों पकड़ते हो? मेरा कंधा पकड़ो न…”
मैं काँपते हाथ से उसका कंधा थाम लिया।
वह मुझे धीरे-धीरे सोफे तक ले आई।
उसकी मासूमियत ने मेरी आँखों से आँसू बहा दिए।
फिर उसने अपनी कॉपी खोलकर दिखाई।
उसमें बनाई हुई तस्वीर—दीवार पर बने मेरे पिताजी के हाथों के निशान।
नीचे लिखा था—
“अगर हर बच्चा अपने बड़ों का ऐसे सहारा बने तो कोई बूढ़ा अकेला नहीं होगा।”
मैं भीतर जाकर पिता जी की याद में रो पड़ा और मन ही मन उनसे माफी माँगी।
समय किसी को बख्शता नहीं।
आज जो जवान हैं, कल वे भी उम्र के इस पड़ाव से गुजरेंगे।
आओ, अपने बड़ों को सम्मान दें, उनकी तकलीफ़ समझें,
और अपने बच्चों को भी यह सीख दें कि—
बड़ों का सहारा बनना ही सबसे बड़ी नेकी है।
(प्रस्तुति -शरद राय)