(Post By Acharya Anil Vats: भगवान कृष्ण द्वारा ‘कुब्जा उद्धार’ की कथा)
कंस की नगरी मथुरा में कुब्जा नाम की स्त्री थी, जो कंस के लिए चन्दन, तिलक तथा फूल इत्यादि का संग्रह किया करती थी। कंस भी उसकी सेवा से अति प्रसन्न था। जब भगवान श्रीकृष्ण कंस वध के उद्देश्य से मथुरा में आये, तब कंस से मुलाकात से पहले उनका साक्षात्कार कुब्जा से होता है। बहुत ही थोड़े लोग थे, जो कुब्जा को जानते थे।
उसका नाम कुब्जा इसलिए पड़ा था, क्योंकि वह कुबड़ी थी। जैसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उसके हाथ में चन्दन, फूल और हार इत्यादि है और बड़े प्रसन्न मन से वह लेकर जा रही है। तब श्रीकृष्ण ने कुब्जा से प्रश्न किया- “ये चन्दन व हार फूल लेकर इतना इठलाते हुए तुम कहाँ जा रही हो और तुम कौन हो?” कुब्जा ने उत्तर दिया कि- “मैं कंस की दासी हूँ।
कुबड़ी होने के कारण ही सब मुझको कुब्जा कहकर ही पुकारते हैं और अब तो मेरा नाम ही कुब्जा पड़ गया है। मैं ये चंदन, फूल हार इत्यादि लेकर प्रतिदिन महाराज कंस के पास जाती हूँ और उन्हें ये सामग्री प्रदान करती हूँ। वे इससे अपना श्रृंगार आदि करते हैं।”
श्रीकृष्ण ने कुब्जा से आग्रह किया कि- “तुम ये चंदन हमें लगा दो, ये फूल, हार हमें चढ़ा दो”। कुब्जा ने साफ इंकार करते हुए कहा- “नहीं-नहीं, ये तो केवल महाराज कंस के लिए हैं। मैं किसी दूसरे को नहीं चढ़ा सकती।” जो लोग आस-पास एकत्र होकर ये संवाद सुन रहे थे व इस दृश्य को देख रहे थे, वे मन ही मन सोच रहे थे कि ये कुब्जा भी कितनी जाहिल गंवार है।
साक्षात भगवान उसके सामने खड़े होकर आग्रह कर रहे हैं और वह है कि नहीं-नहीं कि रट लगाई जा रही है। वे सोच रहे थे कि इतना भाग्यशाली अवसर भी वह हाथ से गंवा रही है। बहुत कम लोगों के जीवन में ऐसा सुखद अवसर आता है। जो फूल माला व चंदन ईश्वर को चढ़ाना चाहिए वह उसे न चढ़ाकर वह पापी कंस को चढ़ा रही है। उसमें कुब्जा का भी क्या दोष था। वह तो वही कर रही थी, जो उसके मन में छुपी वृत्ति उससे करा रही थी।
भगवान श्रीकृष्ण के बार-बार आग्रह करने और उनकी लीला के प्रभाव से कुब्जा उनका श्रृंगार करने के लिए तैयार हो गई। परंतु कुबड़ी होने के कारण वह प्रभु के माथे पर तिलक नहीं लगा पा रही थी।
दास्यस्यहं सुन्दर कंससम्मतात्रिवक्रनामा ह्रायनुलेपकरमणि।
मद्भावितं भोजपतेरतिप्रियं विना युवां कोऽन्यतमस्तदर्हति।।
उसने कहा- मैं कंस की दासी हूंँ, मेरा नाम तो सैरन्ध्री है, लेकिन कमर तीन जगह से टेढ़ी है तो कोई मेरा नाम नहीं लेता, लोग मुझे कुब्जा कहते हैं, त्रिवक्रा भी कहते हैं, हे गोपाल! मेरे जीवन का आज ये पहला दिन है कि किसी ने मेरा परिचय पूछा, दुनियाँ के लोगों ने कभी मेरा परिचय नहीं पूछा कि मैं कौन हूँ? मेरे द्वारा घिसा हुआ चन्दन महाराज कंस को बड़ा प्रिय लगता है, लेकिन आज मेरा मन कर रहा है कि ये चन्दन आपको लगा दूँ।
क्या आप मेरे हाथ का घिसा हुआ चन्दन स्वीकार करेंगे, कृष्ण ने कहा- लगाओ न, उस त्रिवक्रा ने कृष्ण के सखाओं को चन्दन लगाया, बलरामजी के लगाया और जैसे ही मेरे गोविन्द के चन्दन लगाया, गोपाल के नेत्रों से आंसू झर पड़े, सोचा, ये रंग की काली है, त्रिवक्रा है इसलिये लोग इससे बात करना पसंद नहीं करते, इसे भी तो मानवीय गणों से जीने का अधिकार प्राप्त होना चाहिये।
कन्हैया ने कुब्जा को अपने नजदीक आने को कहा, वो जैसे ही कन्हैया के पास आयी, बालकृष्ण ने उसकी होड़ी से तीन अंगुली लगायी और जरा सा झटका दिया, वो तो परम सुन्दरी बन गई, कुब्जा क्या है? वो तीन जगह से टेढ़ी क्यों है? कुब्जा हमारी बुद्धि और बुद्धि तीन जगह से टेढ़ी है,काम,क्रोध,और लोभ,जब तक बुद्धि कंस के आधीन रहेगी तब तक तीन विकारों से टेढ़ी रहेगी।
ज्योंही कृष्ण के चरणों में गिरेगी,यह विकार निकल जायेंगे और बुद्धि बिलकुल ठीक हो जायेगी,जिस पर गोविन्द कृपा कर दे उसके लिये बड़ी बात क्या है?
जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन तैसी।।
जैसा जिसका भाव है,एक ही प्रभु के दर्शन अनन्त रूपों में हो रहा है..!!
(आचार्य अनिल वत्स द्वारा प्रस्तुत)