Mahashivratri के पावन अवसर पर महादेव की प्रसन्नता हेतु आचार्य अनिल वत्स द्वारा पस्तुत विशेष लेख.
शुभ शिवरात्रि-व्रत के पावन अवसर पर ईशान-संहिता के मत से शिव की प्रथम लिङ्ग-मूर्ति फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी तिथि की महानिशा में सर्वप्रथम आविर्भूत हुई थी।
व्रत-कथा में कहा गया है कि एक बार कैलाश शिखर पर स्थित पार्वती ने शंकर जी से पूछा –
कर्मणा केन भगवन् व्रतेन तपसापि वा।
धर्मार्थकाममोक्षाणां हेतुस्त्वं परितुष्यसि।।
अर्थ – हे भगवन् ! धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष – इस चतुर्वर्ग के आप ही हेतु हो। साधना से संतुष्ट हो मनुष्य को आप ही इसे प्रदान करते हो। अतएव यह जानने की इच्छा है कि किस कर्म , किस व्रत या किस प्रकार की तपस्या से आप प्रसन्न होते हैं ?
इसके उत्तर में भगवान शंकर कहते हैं –
फाल्गुने कृष्णपक्षस्य या तिथि: स्याच्चतुर्दशी।
तस्यां या तामसी रात्रि: सोच्यते शिवरात्रिका।।
तत्रोपवासं कुर्वाण: प्रसादयति मां ध्रुवम्।
न स्नानेन न वस्त्रेण न धूपेन न चार्चया।।
तुष्यामि न तथा पुष्पैर्यथा तत्रोपवासत:।।
अर्थ – फाल्गुन के कृष्ण-पक्ष की चतुर्दशी तिथि को आश्रय कर जिस अंधकारमय रात्रि का उदय होता है , उसी को शिवरात्रि कहते हैं। उस दिन जो उपवास करता है , वह निश्चय ही मुझे संतुष्ट करता है। उस दिन उपवास करने से मैं जैसा प्रसन्न होता हूं , वैसा स्नान , वस्त्र , धूप और पुष्प के अर्पण से भी नहीं होता।
शिवरात्रि की महत्ता को लेकर स्कंद पुराण में कहा गया है –
परात् परतरं नास्ति शिवरात्रिपरात् परम्।
न पूजयति भक्त्येशं रूद्रं त्रिभुवनेश्वरम्।।
जन्तुर्जन्मसहस्त्रेषु भ्रमते न अत्र संशय:।।
इसका आशय है यह है कि शिवरात्रि व्रत परात्पर है , जो जीव इस शिवरात्रि में महादेव की भक्तिपूर्वक पूजा नहीं करता , वह हजारों वर्षों तक (आवागमन के चक्कर में) घूमता रहता है – इसमें कोई संशय नहीं है।
पद्म पुराण में वर्णित है –
सौरो वा वैष्णवो वान्यो देवतान्तर पूजक:।
न पूजाफलमाप्नोति शिवरात्रिबहिर्मुख:।।
चाहे सूर्यदेव का उपासक हो , चाहे विष्णु का अथवा किसी अन्य देव का भी उपासक क्यों न हो ? यदि वह शिवरात्रि का व्रत नहीं करता है , तो उसको फल की प्राप्ति नहीं होती।
हम सभी जानते हैं कि विराट हिंदू समाज पांच मुख्य संप्रदायों – सौर , गणपति , शैव , वैष्णव और शाक्त – में विभक्त हैं। इनमें से जो जिनके उपासक होते हैं , वे अपने उस इष्ट देव को छोड़कर अन्य की उपासना प्रायः नहीं करते , परंतु इस शिवरात्रि व्रत की ऐसी महिमा है कि संप्रदाय के भेद को त्याग कर सभी भक्त इस व्रत का पालन करते हैं।।
हम सभी जानते हैं कि एक अहोरात्र (दिन-रात) में आठ प्रहर होते हैं। चार प्रहर दिवस के तथा रात्रि के चार प्रहर होते हैं। शास्त्रों में रात्रि के चार प्रहर में चार बार पृथक-पृथक पूजा का विधान भी प्राप्त होता है।
दुग्धेन प्रथमे स्नानं दध्ना चैव द्वितीयके।
तृतीये तु तथाऽऽज्येन चतुर्थे मधुना तथा।।
अर्थात् प्रथम प्रहर में दुग्ध (दूध) द्वारा , द्वितीय प्रहर में दही द्वारा , तृतीय प्रहर में घृत एवं चतुर्थ प्रहर में मधु द्वारा सद्योजात-मूर्ति को स्नान कर उनका पूजन करना चाहिए।
प्रभात में कथा व्रत सुनकर अमावस्या को यह कहते हुए पारण करना चाहिए –
संसारक्लेशदग्धस्य व्रतेनानेन शंकर।
प्रसीद सुमुखो नाथ ! ज्ञानदृष्टिप्रदो भव।।
अर्थ – हे शंकर ! मैं नित्य संसार की यातना से दग्ध हो रहा हूं अर्थात् जल रहा हूं। इस व्रत से आप मुझ पर प्रसन्न हों। हे नाथ ! संतुष्ट होकर आप मुझे ज्ञानदृष्टि प्रदान करें।
शिवरात्रि व्रत के रहस्य को जानने के लिए यह आवश्यक है कि उसका पदच्छेद करके उसके अंगीभूत प्रत्येक शब्द पर विचार किया जाए। शिव किसे कहते हैं ? रात्रि से क्या तात्पर्य है और व्रत का क्या अर्थ है ?
अगले अंक में उपर्युक्त तीनों शब्दों के निहितार्थ पर प्रकाश डालने का प्रयास करूंगा।
(आचार्य अनिल वत्स की प्रस्तुति)