Sweet Memories: A Beautiful Memory Lane-Kaathgodam Railway Station..
यह काठगोदाम का रेलवे स्टेशन है। मैं कभी काठगोदाम गया नहीं। लेकिन मैं उसके बारे में सोचता रहा हूँ। इसलिए सोच के अहाते में काठगोदाम की एक जगह बन गई है।
कितना साफ़-सुथरा और कितना वीरान रेलवे स्टेशन है। वीरान चीज़ें कितनी सुन्दर होती हैं और कितनी साफ़। सुथराई में कितनी सुन्दरता है!
कुमाऊं के कोनों-अंतरों तक इस टेसन के बाद सड़क जाती है। रेल लाइन काठगोदाम आकर चुक जाती है। वो रेल, जो सन् 1884 में सबसे पहले यहाँ पहुँची थी, कूक का कहरवा गाते!

धूप से भरा दृश्य! पहाड़ों की कोमल पीली धूप। जिसे श्रीनरेश मेहता ‘पीताम्बरा’ कहते, आकाश में देववस्त्रों सी अकलंक बताते। और फिर ‘धूप-कृष्णा’ कहकर एक वरेण्य संज्ञा से सज्जित कर देते।
इसका नाम भले काठगोदाम हो, मैं तो इसे ‘धूप-शहर’ कहकर ही बुलाऊंगा। धरा पर धूप का धाम!
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काठ का गोदाम यानी ‘टिम्बर डिपो’। यहाँ पर सच में ही बड़ा-सा टिम्बर डिपो एक ज़माने में हुआ करता था। टिम्बर किंग ऑफ़ इंडिया कहलाने वाले दान सिंह के चौहान-पट्टे में पड़ने वाला इलाक़ा। फ़िरंगियों के दफ़्तरों में आज भी इसका नाम ‘चौहान पट्टा’ ही मिलता है।

यों पहाड़ों के समस्त इलाक़े ही काठगोदाम हैं, किंतु वृक्षों के जीवित काष्ठ वाले। टिम्बर डिपो वाला जो काठगोदाम होता है, वहाँ वृक्षों के शव होते हैं, जिन्हें क़तार में उसी तरह सजाया जाता है, जैसे मनुष्यों के शव हस्पतालों के अहातों में क़तार से सजाए जाते हैं।
लेकिन मुझे यह नाम रुचता है- ‘काठगोदाम’।
कवि अज्ञेय ने कहा था- “ताज़ा चिरी लकड़ी की गंध जिसमें हो, वैसी भाषा मुझको चाहिए।” वैसी भाषा का तो मालूम नहीं, किंतु इस शब्द से मुझे वैसी ही गंध आती है- ‘काठगोदाम’। काठ की गंध से भरी नामसंज्ञा।

इधर के शहरों-क़स्बों के नाम ऐसे ही हैं!
किसी के नाम में ‘ताल’ जुड़ा है- नैनीताल, भीमताल, नौकुछियाताल।
किसी के नाम में ‘खेत’ जुड़ा है- रानीखेत।
किसी के नाम में ‘डेरा’ जुड़ा है- देहरादून।
किसी के नाम में वन जुड़ा है- हल्द्वानी।
हल्द्वानी यानी हल्दू का वन!
कहते हैं इधर लालकुंआ-हल्द्वानी मार्ग पर हल्दू का एक बड़ा-सा दरख़्त हुआ करता था, जिसके नाम पर ही उस इलाक़े को मोटाहल्दू कहा जाने लगा था। रामपुर-काठगोदाम सड़क के काम में जब उसे काट दिया गया तो वहाँ के लोगों को लगा, जैसे उनके परिवार के किसी सदस्य की हत्या कर दी गई हो। तब धूप के उस देश में शोक का अंधेरा व्याप गया!
मैंने हल्दू का पेड़ कभी देखा नहीं है, केवल हल्द्वानी का नाम सुना है।
मैंने काठगोदाम भी देखा नहीं है, केवल काठ की गंध का अनुभव किया है।
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मैंने पहाड़ की धूप तक नहीं देखी!
लेकिन जितने लोग पहाड़ों से लौटकर पठारों पर आए, उनमें से किसी ने भी किसी पहाड़ी क़स्बे को कभी ‘धूप-शहर’ कहकर नहीं पुकारा।
मैंने पुकारा!

जब तक लैंसडोन, नैनीताल और हल्द्वानी में यों ही नहीं चला जाता, जैसे बारिश होती है, जैसे रात घिरती है, तब तक मैं संतोष की इस कनी को ही अपने कमीज़ की जेब में सम्हाले रक्खूंगा कि धूप से धुले काठगोदाम टेसन के इस चित्र को ही निमिष भर तो निहारा!
.Sushobhit