Parakh Saxena writes : यदि ये लेख पढ़े जाते समय भारत की सीमा हिंदुकुश पर्वत तक है और सिंधु नदी इसके तलहट में बह रही है तो ये ऐसी कल्पना है जिसका कई हिंदूवादी भी स्वयं मजाक बनाएंगे मगर ये सच होगा क्योंकि संघ जीवित रहेगा..
1818 में मराठा साम्राज्य के पतन के बाद सबसे बड़ा प्रश्न यही था कि बहुसंख्यक हिंदू अब किसके भरोसे होंगे, अंग्रेजों का राज कभी तो समाप्त होना ही था। हिंदू जाति में कुछ ऐसा बंटा था कि इसके भाग्य में बलि के पशुओं के समान मृत्यु ही आनी थी।
इन 100 वर्षों में वायसराय हाउस राष्ट्रपति भवन बन गया, ब्रिटिश क्राउन की जगह अशोक स्तंभ लग गया, ब्रिटिश सम्राट की जगह राष्ट्रपति ने ले ली। सबकुछ बदला मगर नहीं बदला तो संघ का वो ध्येय जो उसे नागपुर के एक पार्क से दिल्ली के राजमहलो में ले गया।
1989 के चुनाव में बीजेपी को 85 सीटें मिली थी ये उस समय बीजेपी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था, तत्कालीन संघ प्रमुख एम डी देवरस के ऑफिस से टिप्पणी आई कि अभी उत्सव मत मनाइए 200 सीटें कम है। जबकि ये वो समय था जब बीजेपी का 272 सीटो पर अस्तित्व भी नहीं था।
मगर यही वो एटीट्यूड या विश्वास था जो आज दिल्ली के तख्त पर काबिज है, 1925 में RSS की स्थापना के समय कहा गया था कि अगले 100 वर्षों में सत्ताधारी वे होंगे जिन पर संघ का प्रभाव होगा। दरअसल शुरुआती 30 वर्षों में संघ राजनीति से दूर था इसलिए उसे पता नहीं था कि वह खुद सत्ताधारी होगा।
1996 में अटल बिहारी वाजपेयी ने जब शपथ ली तो RSS का वह लक्ष्य 70 सालों में ही पूरा हुआ। सत्ता मिलने पर भी अनुशासन नहीं खोया, उनके स्वयंसेवक जमे रहे और 2014 में स्थाई रूप से उसे सत्ता में पहुंचाया।
बात सिर्फ सत्ता तक नहीं है, 1925 वो दौर था जब मुसलमान जानते थे कि उन्हें इस्लामिक खिलाफत के लिए लड़ना है, मगर जाति और भाषा प्रांत में बंटा हिंदू उनके हाथों कटने को प्रस्तुत था। संघ से पहले भी कई हिंदूवादी संगठन बने थे मगर समय के साथ साथ सभी अप्रासंगिक होते गए। हिमालय की तरह अडिग रहा तो सिर्फ RSS।
अटल को प्रधानमंत्री बनता देखने के लिए हेडगेवार जीवित नहीं थे, मोदी को देखने के लिए देवरस जीवित नहीं थे। लेकिन इसमें दुख का कोई कारण नहीं है क्योंकि संघ में सपने और विचार अगले उत्तराधिकारी को चले जाते है। मृत्यु सिर्फ शरीर की होती है काम वैसे ही चलेगा जैसे पहले वाले करते थे।
व्यक्तिगत रूप से RSS को सरस्वती शिशु मंदिर और भारतीय जनता पार्टी देने के लिये धन्यवाद, इन दो के बिना शायद जीवन की कल्पना कुछ और ही होती।
विद्यालय इसलिए क्योंकि उसने वामपंथी बवंडर में भी कभी इतिहास से कटने नहीं दिया और बीजेपी इसलिए क्योंकि उसने सत्ता में आकर जो स्टार्ट अप कल्चर बनाया वो आज कम से कम मेरे लिए तो वरदान है।
ऐसा लगा मानो संघ कोई संगठन नहीं बल्कि पूरा इको सिस्टम है, संघ से जुड़ी संस्थाएं हमारे जीवन को हर मोड़ पर प्रभावित कर रही है। जिन्हें संघ से शिकायतें है वे इस पोस्ट पर कमेंट ना करे, क्योंकि ये पोस्ट 100% संतुष्टि ढूंढने के उद्देश्य से नहीं लिखी गई है।
आज से 50-100 वर्षों के बाद जब दुनिया बदलेगी, सत्ता का स्वरूप बदल जाएगा तब जो भी लोग ये लेख पढ़े वे स्मरण रखे कि आप जिस भारत में जी रहे हो वो हमारे लिए लेख लिखे जाते समय एक सपना है।
यदि ये लेख पढ़े जाते समय भारत की सीमा हिंदुकुश पर्वत तक है और सिंधु नदी इसके तलहट में बह रही है तो तय मानिए ये हमारे लिए इस समय सिर्फ कल्पना मात्र है। ये ऐसी कल्पना है जिसका कई हिंदूवादी भी स्वयं मजाक बनाएंगे मगर ये सच होगा क्योंकि संघ जीवित रहेगा।
दोबारा धन्यवाद, अटल बिहारी और नरेंद्र मोदी देने के लिए, नानाजी देशमुख और अशोक सिंघल देने के लिए। इन सबके बाद जब मोहन भागवत कहते है कि अभी तो हमारे पास देने के लिए ऐसे 500 लोग और तैयार रखे है तो भय का कोई कारण नहीं है।
(परख सक्सेना)