Sunday, December 7, 2025
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एक सांस्कृतिक मर्म (1) : परिजनों का अंतिम क्रियाकर्म सर्वथा अर्थपूर्ण : कदापि उपेक्षणीय नहीं

 

अपने अंतिम क्रिया कर्मो के लिए व्यक्ति अपने परिजनों पर पूर्ण निर्भर होता है .इस अति महत्वपूर्ण दायित्व से आज की नई पीढ़ी उदासीन होती जा रही है .यह बड़ी शोचनीय बात है . इन कर्मो को श्रधापूर्वक सम्पन्न करने से हमारे माता -पिता ,दादा – दादी की परलोक यात्रा तथा वहां का जीवन सुखद और सुविधापूर्ण होता है अन्यथा वे भूखे -प्यासे और बड़े ही अशांत भुवर्लोक में भटकते रहते हैं . अस्तु , यह श्राद्धकर्म हमे अवश्य करना चाहिए तथा बड़ी श्रद्धा और विश्वास से करना चाहिए . पुरखे देव – योनी में गिने जाते हैं .उनमें श्राप और वरदान की शक्ति होती है .प्रसन्न होने पर हमे उनका आशीर्वाद मिलता है .उपेक्षित होने पर वे हमे शाप भी दे देते हैं . ये शाप – वरदान दोनों ही अपना प्रभाव दिखाते हैं .अतः इस क्रिया -कर्म को बेकार या अंधविश्वास मानना एक बड़ी भूल है .हमारी उनके प्रति कृतघ्नता भी . हम उनके ऋणी होते हैं .

अपने बुढापे और अंतिम कर्म – हेतु लोग पुत्र की लालसा पालते हैं .’पुत्र ‘ शब्द पुं (नरक) + त्र ( रक्षा करने वाला ) से मिलकर बनता है . पुत्र द्वारा क्रिया – कर्म संपादित होने से व्यक्ति नरक जाने से बच जाता है .इसके विपरीत पुत्रहीन पापी ,अभागी ,और नारकीय माना जाता है .ऐसे निपुत्री का प्रातःकाल मुंह देखना भी लोग अशुभ मानते हैं तथा उस पर तरह – तरह के व्यंग्य – कटाक्ष करते हैं . महाराज दशरथ तक को अपनी प्रजा द्वारा ऐसा कटाक्ष सुनने को मिला था .

धर्म – ग्रंथों के अनुसार भी पुत्रहीन की परलोक में सुगति नहीं होती .इस लोक में किया गया जप – तप भी उसके काम नहीं आता :-

अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गं नै वच नैवच .

तस्मात् – पुत्र – मुखं दृष्टा पश्चात् भवतु तापस .

अपुत्र को तो परलोक में अच्छी गति भी नहीं प्राप्त होती. स्वर्ग मिलने की तो बात मत कीजिये – मत कीजिये .अतः पहले पुत्र का मुख देख लो , उसके बाद ही तपसी बनो क्योंकि तुम्हारा तप तुम्हारे काम नहीं आएगा .

पुत्र और उसके द्वारा होने वाले श्राद्ध – कर्म का कितना अधिक महत्व है .ऐसे महत्वपूर्ण कार्य से आज लोग मुख मोड़ रहे हैं .तेरह दिन के श्राद्ध – कर्म को चार दिन में जैसे तैसे निपटा कर लोग अपनी जान सी छुडाते हैं . बरसी ,पितृपक्षीय तर्पण ,गया श्राद्ध और वदरिका आश्रम के ब्रह्म कपाल का श्राद्ध तो लोग भूलते ही जा रहे हैं . यह सीधा सा समीकरण है कि जैसा कुछ हम अपने माँ – बाप के प्रति उनके जीवन में तथा बाद में करेंगे ठीक वैसा ही ,बल्कि ब्याज जोड़कर ,वही सब कुछ हमारे बच्चे हमारे साथ करेंगे. यह शाश्वत नियम है .

सन १९७५ ई. में मैं अपनी सर्विस के सिलसिले में श्योपुर (जिला मोरैना ,म.प्र.) में था. वहां मेरे एक ६ वर्षीय बालक कि अचानक मृत्यु हो गयी .वहां मेरे सहयोगियों ने वहां कि रूढी के अनुसार, मेरे मना करने के बावजूद , उसका शव – दाह कर दिया . किन्तु बालक समझकर दाह -कर्म के बाद होने वाला तर्पण मैंने नहीं किया . सन १९८२ में स्थानान्तरित हो कर मैं भोपाल आ गया . वहां संयोगवश मुझे एक दिन एक पुजारी पर माँ काली का आवेश देखने को मिला . उसमे जब उनसे बात करने का मौका मिला तो माँ ने बताया कि त्रिपाठी तुम्हे ब्रह्महत्या लगी है. जब मैंने प्रतिवाद किया कि मैंने अपने जीवन में कभी भी किसी ब्राह्मण कि हत्या कि ही नहीं तो फिर यह ब्रह्महत्या मुझे कैसे लगी ? तो उन्होंने स्पष्ट किया कि तुमने अपने पुत्र का शव – दाह करने दिया था -जो करना नहीं चाहिए था. अतः तुम्हे यह ब्रह्महत्या लगी है .

इस घटना को वहां कोई नहीं जानता था. अतः मैं आश्चर्यचकित हो गया, तब मैंने माँ काली से पूछा कि अब मै क्या करूँ ? तो उन्होंने कहा कि तुम उज्जैन जाकर शिप्रा नदी के तट पर उस बालक कि विधिवत अन्तेय्ष्टि करो तो उसके शारीर कि जलन,जिससे वह तड़प रहा है, शांत हो जायेगी .तदनुसार मैंने उज्जैन में उसकी विधिवत -अन्तेय्ष्टि सम्पन्न की . रात में भोपाल लौटते समय ट्रेन में मुझे नींद आ गयी और उसमे मुझे वह बालक दिखाई पड़ा और हँसते हुए उसने अपनी प्रसन्नता और संतोषव्यक्त किया तथा कहा की अब मैं ऊपर जा रहा हूँ और गायब हो गया. अब तक वह बालक अपनी जलन से बुरी तरह से पीड़ित रहता हुआ इसी लोक में भटकता रहा.

अन्तेय्ष्टि की अनिवार्यता का यह प्रत्यक्ष उदहारण है . अतः मैं सभी आस्थावान व्यक्तियों से अनुरोध कर रहा हूँ कि इस अति आवश्यक कर्त्तव्य से मुंह न मोड़ें – आधा -अधूरा इसे न करें .तभी उनके पुरखों को शान्ति मिलेगी और उन्हें उनकी कल्याणकारी आशीष . यह अति उपयोगी परम्परा अंधविश्वास नहीं है .

(डॉक्टर पीएस त्रिपाठी)

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