(Devendra Sikarwar)
ऑपरेशन सिंदूर के बाद ‘मन की बात’ से लेकर अभी कल की सभा के भाषण तक में मोदी जी कि बॉडी लैंग्वेज में पहली बार क्रोध की झलक दिखाई दे रही है।
मदरसों पर कार्यवाही, विदेशी फंडिंग वाले NGO की लगाम कसने, डोभाल की रूस यात्रा के रद्द होने जैसे कदमों से उनकी उग्रता दिख भी रही है।
विदेशी माल के बहिष्कार का आह्वान मोदी जी की क्षुब्ध मनोस्थिति का आह्वान है जो पिछले पखवाड़े के घटनाक्रम का परिणाम है विशेषतः मित्र राष्ट्रों के रवैये के कारण।
इसके मूल को मैं पहले भी कई बार बता चुका हूँ कि विश्व के सात महाद्वीपों में से एक सुनसान है और दो पर गोरों का पूरा कब्जा है जो ब्रिटेन से घनिष्ठ रूप से जुड़े हैं, यूरोप में पहले ही ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी का प्रभुत्व है।
पुतिन भी स्वयं को यूरोपीय ही मानते रहे हैं लेकिन ब्रिटेन व अमेरिका के संकेत पर नाटो द्वारा अपमानजनक व्यवहार के कारण विरोधी हैं लेकिन उनकी संस्कृति यूरोप की ही है और युरोपीय लोग कम या ज्यादा नस्लवादी श्रेष्ठता से ग्रसित हैं और अभी भारत की चमत्कारिक सैन्य सफलता से कहीं न कहीं कुंठित हो गये हैं।
ऐसे में अमेरिका के साथ फ्रांस व रूस के व्यवहार ने मोदी जी को सोचने पर विवश कर दिया है।
अफ्रीका कालों का घर है जो न तीन में न तेरह में, यहाँ तक कि उनके सबसे शक्तिशाली देश दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति को अमेरिका बुलाकर घर पर बैठाकर सरे आम डांट पिलाई जाती है और बेचारे मजबूर होकर खिसियानी हंसी हँसते रहते हैं।
अब रहा एशिया जिसमें मुस्लिम अरबों से निबटने को अकेला इजरायल काफी है। शेष बचे चीन, भारत और जापान जिनमें आपस में बनती ही नहीं।
केवल चीन ने इन गोरों को ठीक से समझा और अपने तंत्र को अभेद्य बनाया है। अगर भारत से उसका सीमा विवाद न होता तो दोंनों राष्ट्र गोरों के होश ठिकाने लगा सकते थे लेकिन चीनियों का विस्तारवाद कभी भी एशिया के रंगबिरंगी त्वचा वालों को इन गोरों के विरुद्ध खड़ा नहीं होने देगा।
अब भारत के समक्ष एक ही विकल्प है कि भारत अपनी शक्ति अपने दम पर विकसित करे।
भारत अपनी अर्थव्यवस्था को संभाल सकता है बिना विश्व से कोई मदद लिए लेकिन सबसे पहले उसे शक्ति के क्षेत्र में अपने पैरों पर खड़े होना होगा।
-नौसैनिक क्षेत्र में भारत पूर्णतः आत्मनिर्भर हो चुका है।
-थल सेना की जरूरतें भी हम स्वयं पूरी कर सकते हैं।
-वायुसेना के क्षेत्र में हम रॉकेट, सेटेलाइट, मिसाइल क्षेत्र में वैश्विक शक्ति हैं लेकिन वायुयान और विशेषतः जैट इंजन का स्वदेशीकरण व वायुसेना को चीन के बराबर ले जाना एक समस्या है।
भारत की एक समस्या उसके छोटे पडोसी हैं जिनमें से पाकिस्तान, बांग्लादेश और मालदीव मुस्लिम होने के कारण कभी भारत के स्थाई मित्र हो ही नहीं सकते।
अब बचे नेपाल, श्रीलंका, भूटान जो भारत की उदारता का फायदा उठाकर चीनी ब्लैकमेलिंग करते रहते हैं और चीन के पाले मे जाने की धौस देकर भारत से पैसे ऐंठते रहते हैं और आँखे भी दिखाते हैं।
चीन के पाले में तो वह वैसे भी जा रहे हैं तो अब बार-बार ‘ठंडा-गरम’ करने के स्थान पर सीधे सीधे अमेरिका के ‘मुनरो सिद्धांत’ की तर्ज पर साफ साफ घोषित कर देना चाहिए कि अगर भारत की मदद चाहिये तो भारत के शत्रु राष्ट्रों से दूर रहना होगा और यहाँ तक कि अगर भारत के विरुद्ध अपनी जमीन या द्वीप को सैन्य उपयोग के लिए देने पर भारत की सहायता से ही वंचित नहीं होना पड़ेगा बल्कि उस भूभाग पर प्रत्यक्ष सैन्य कार्यवाही भी हो सकती है।
लेकिन यह सब तभी संभव होगा जब भारत अपनी आपूर्ति अपने ही उत्पादन से करे, चाहे व रक्षा हो या कृषि या फिर औद्योगिक उत्पादन।
और इसके लिए भारत को तकनीकी क्षेत्र मे आरक्षण को ही खत्म नहीं करना होगा बल्कि समस्त तकनीकी प्रतिभावानों को ऊँचे पैकेज और जरूरत पड़ने पर कानूनी व बलपूर्वक भारत मे ही सेवाये देने पर राजी करना होगा।
विश्व मे अपनी शर्तो पर जीना तभी संभव हो पायेगा जब हम हर पहलू से शक्तिशाली होंगे।
लेकिन इस सभी में बाहरी ताकतें नहीं बल्कि भारत में बसे तीस करोड़ पाकिस्तानी और लिबरल सैक्युलर हिंदू सबसे बड़ी रूकावट हैं जहाँ आकर मोदी भी हताश हो जाते होंगे।
विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आह्वान में उनकी यह खीज साफ साफ दिखाई दे रही है।