Tuesday, October 21, 2025
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Kamleshwar : संपादक कमलेश्वर साहित्यकार भी अच्छे थे और इन्सान भी

Kamleshwar: मेरे पहले संपादक थे कमलेश्वर जी। मुझे उन शुरुआती दिनों की याद अभी भी ताजा है, जब शनिवार को मैं और मेरा रूम मेट बिल्कुल खाली हो जाया करते थे..

 

मेरे पहले संपादक थे कमलेश्वर जी। मुझे उन शुरुआती दिनों की याद अभी भी ताजा है, जब शनिवार को मैं और मेरा रूम मेट बिल्कुल खाली हो जाया करते थे।

दिल्ली उन दिनों आज की तरह रंगीन नहीं थी। खूब सोना, खाना लेकिन मिजाज़ नहीं बदल पाता था। नतीजतन, सोमवार की मीटिंग में बिना स्टोरी आइडिया के बुझा हुआ दिमाग।

न इंटरनेट, न सोशल मीडिया। प्रेस क्लब के लिए हम बच्चे थे। आईएनएस कॉफी और सस्ते साउथ इंडियन खाने की जगह थी।

एक दिन कमलेश्वर जी बोले–वीकेंड पर दोनों मेरे घर आ जाया करो। गप्पे हांकेंगे। किताबें भी मिलेंगी। पर शर्त यह है कि…

इससे पहले कि उनकी बात पूरी हो, मैं कह बैठा–बिल्कुल सर। हम आयेंगे।
कमलेश्वर जी का कमरा यानी किताब घर। उन दिनों “और कितने पाकिस्तान” लिखी जा रही थी। अंतिम चरण में।

बिस्तर पर और बिस्तर के नीचे बिखरी किताबें। साथ में ब्लैक लेबल की 3–4 बोतलें।
थोड़ी ही देर में मैडम पकौड़े लेकर आ गईं। उनके जाते ही कमलेश्वर जी ने मुझे आदेश दिया–बोतल उठाओ, तीनों के लिए पेग बनाओ।

मैं झिझक गया, तो बोले–मैं सब खबर रखता हूं। पकौड़े ठंडे हो जाएंगे। जल्दी करो। हमारे लोकल गार्जियन कमलेश्वर जी के कट्टर चेले थे।

अलमारी से निकले इंपोर्टेड ग्लास और उसमें उतरता ब्लैक लेबल। सुनहरा सा। चमकता नशा।

पहले पेग के बाद कमलेश्वर जी का चेहरा खिल उठा। गुलाबी सा।

मेरे दिमाग में एक सवाल अधूरा था। पहली खुमारी में ही पूछ लिया–सर, क्या फिल्म आंधी वाकई इंदिरा जी की असल कहानी थी?

पहले और दूसरे पेग के बीच करीब एक घंटे का फासला और सर की बातें… सत्ता, संगठन, जेपी, हिंदुत्व, इमरजेंसी और आरएसएस, साजिशें… शायद, जिंदगी में पहली बार किसी फिल्म की तरह सत्ता के गलियारे आंखों के सामने घूमने लगे।

दूसरा पेग और भी गर्मजोशी भरा रहा। भुने हुए काजू भारत की प्रशासनिक व्यवस्था, नौकरशाही के आजू–बाजू रहे।

कमलेश्वर जी कभी 3 से ज्यादा पेग नहीं पीते थे। इतने सुरूर में एक पूरी कहानी उनके दिमाग में फिल्म की तरह चल जाती थी।

फिर जब तक कमलेश्वर जी हमारे संपादक रहे, वीकेंड की हर शाम 2 और प्याले, प्यादों के साथ गुरुजी के पास होते। दोनों प्यादे जमीन पर बैठकर उनसे सीखते।
मैडम, बेहद शानदार खाना पकाती थी। भोजन के बाद कमलेश्वर जी मुझे एक किताब पकड़ा देते समीक्षा के लिए।

सारा नशा उतर चुका होता था, क्योंकि अगले 2 दिन में गुरुजी को समीक्षा भेजनी होती थी।

आज कमलेश्वर जी की पुण्यतिथि है।

(अज्ञात)

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