RSS: परम श्रद्धास्पद मोहन भागवत जी न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे विश्व के सबसे बड़े राष्ट्रभक्त संगठन के प्रमुख हैं, अपितु वे एक राष्ट्रवादी विचारक भी हैं..सुनिये शताब्दी वर्ष पर नागपुर में उनके महत्वपूर्ण भाषण के अंश..
आज हम सब विजयादशमी के पावन अवसर पर एकत्रित हुए हैं। यह वर्ष संघ कार्य के शताब्दी प्रारंभ का द्योतक है। संयोग से यही समय गुरु तेग बहादुर जी महाराज के 350वें बलिदान वर्ष का भी है। उन्होंने आक्रमणकारियों के अत्याचारों से हिंदू समाज की रक्षा के लिए स्वयं को आहुति बना दिया। इसी दिन महात्मा गांधी जी का जन्मदिवस भी पड़ता है—वे केवल स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत ही नहीं थे बल्कि स्वतंत्र भारत की आत्माधारित अवधारणा के शिल्पी भी थे। आज ही पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती भी है, जिनकी सादगी, ईमानदारी, विनम्रता और दृढ़ संकल्प हमें सदैव प्रेरित करते हैं।
ये सभी महान आत्माएँ त्याग, समर्पण और राष्ट्रभक्ति के आदर्श प्रतीक हैं। उनसे हम सीखते हैं कि वास्तविक मानवता क्या है और जीवन को किस प्रकार जीना चाहिए।
वर्तमान परिदृश्य: आशाएँ और चुनौतियाँ
पिछले एक वर्ष की घटनाओं ने जहाँ एक ओर हमारे विश्वास को मजबूत किया है, वहीं दूसरी ओर कई पुरानी और नई चुनौतियाँ भी सामने रख दी हैं।
प्रयागराज का महाकुंभ इस वर्ष विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन सिद्ध हुआ। श्रद्धालुओं की संख्या और अनुशासित प्रबंधन ने पूरे भारत में आस्था और एकता की लहर उत्पन्न कर दी।
इसी बीच पहलगाम में 22 अप्रैल को सीमा पार से आए आतंकियों ने श्रद्धालु हिंदू पर्यटकों की नृशंस हत्या की। पूरे देश में आक्रोश और शोक की लहर फैल गई। इसके बाद भारत सरकार ने योजनाबद्ध तरीके से प्रतिउत्तर दिया। इस अवधि में हमने देश के नेतृत्व की दृढ़ता, सेना की सजगता और समाज की एकजुटता को देखा। साथ ही यह भी स्पष्ट हुआ कि मित्रवत नीति रखते हुए भी हमें सुरक्षा के मोर्चे पर सजग और सक्षम बने रहना होगा।
नक्सलवाद का प्रभाव अब काफी हद तक घट चुका है। सरकार की सख्ती और जनता में उनकी हिंसक विचारधारा के खोखलेपन का बोध इस परिवर्तन का कारण है। अब उन क्षेत्रों में न्याय, विकास और सामंजस्य की स्थायी व्यवस्था स्थापित करना आवश्यक है।
आर्थिक संकेतक बताते हैं कि स्थिति में सुधार हो रहा है। युवाओं और उद्योगों में भारत को विश्व नेतृत्व की ओर ले जाने का उत्साह दिखता है। किंतु आर्थिक विषमता, पूँजी के केंद्रीकरण, पर्यावरण संकट और मानवीय संबंधों में गिरावट जैसे दोष भी गहराते जा रहे हैं। अमेरिका की स्वार्थपूर्ण नीतियों को देखते हुए आत्मनिर्भरता और स्वदेशी पर बल देना और भी अनिवार्य हो गया है।
प्रकृति पर आधारित वैश्विक उपभोक्तावादी मॉडल के दुष्परिणाम अब सब जगह सामने आ रहे हैं। भारत में भी अनियमित वर्षा, हिमनदों का पिघलना और भूस्खलन जैसी समस्याएँ पिछले वर्षों में तीव्र हुई हैं। हिमालय में घटित ये घटनाएँ सम्पूर्ण दक्षिण एशिया के लिए चेतावनी हैं।
हमारे पड़ोसी देशों—श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल—में हाल के उथल-पुथल ने भी सावधान किया है। हिंसक विद्रोह परिवर्तन नहीं ला सकते, बल्कि बाहरी शक्तियों को हस्तक्षेप का अवसर देते हैं। ये देश हमारी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से परिवार का ही हिस्सा हैं, इसलिए उनकी शांति और समृद्धि हमारी जिम्मेदारी भी है।
विश्व परिदृश्य
विज्ञान और तकनीकी प्रगति ने जीवन को सुविधाजनक बनाया है, परंतु मनुष्य का अनुकूलन इसकी गति से पीछे है। इसके कारण अनेक समस्याएँ जन्म ले रही हैं। पर्यावरणीय संकट, युद्ध, पारिवारिक बंधनों की शिथिलता और सामाजिक असामंजस्य इसके उदाहरण हैं। पूरी दुनिया एक ऐसे मार्गदर्शन की प्रतीक्षा कर रही है जो भारतीय दर्शन से प्रेरित हो।
सकारात्मक बात यह है कि भारत में राष्ट्रीय चेतना और सांस्कृतिक आत्मविश्वास लगातार बढ़ रहा है। समाजसेवा और संगठित कार्य के प्रति युवाओं में आकर्षण है। स्वदेशी विकास और भारतीय दृष्टिकोण पर आधारित प्रशासनिक मॉडल खोजने की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है।
भारत का दार्शनिक दृष्टिकोण
स्वामी विवेकानंद से लेकर महात्मा गांधी, दीनदयाल उपाध्याय और लोहिया जी तक सभी ने स्पष्ट कहा कि आधुनिक दृष्टिकोण अधूरा है। केवल भौतिक समृद्धि से मानवता का कल्याण संभव नहीं। हमारी सनातन, समग्र और आध्यात्मिक दृष्टि भौतिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास का संतुलित मार्ग दिखाती है। सह-अस्तित्व और कर्तव्यबोध पर आधारित यह जीवन-पद्धति ही विश्व को स्थायी समाधान दे सकती है।
संघ का दृष्टिकोण
संघ ने अपने सौ वर्षों में व्यापक सामाजिक अनुभव संचित किया है। उससे कुछ निष्कर्ष स्पष्ट हुए हैं:
भारत के पुनरुत्थान की गति तेज है, किंतु हमें दीर्घकालिक परिवर्तन लाने के लिए अपनी मौलिक दृष्टि पर आधारित विकास मॉडल प्रस्तुत करना होगा।
आदर्श भारत की रचना केवल व्यवस्था की जिम्मेदारी नहीं है; समाज की जागरूकता और आचरण में परिवर्तन ही वास्तविक शक्ति है।
ऐसा परिवर्तन लाने के लिए व्यक्ति-निर्माण आवश्यक है। संघ की शाखा इस कार्य का सतत साधन है।
विविधताओं से भरे इस देश में सामाजिक एकता ही प्रगति का मूल है। भिन्न-भिन्न पहचान हमें विभाजित न करें, बल्कि एक बड़े सांस्कृतिक राष्ट्र की चेतना हमें एक रखे।
भारतीय संस्कृति समावेशी और धर्ममूलक है। यह विविधताओं को सम्मान देती है। यही हमारी राष्ट्रीय एकता का आधार है।
संगठित हिंदू समाज ही भारत की अखंडता और प्रगति की गारंटी है। यही समाज विश्व को “वसुधैव कुटुंबकम्” का संदेश दे सकता है।
शाखा में व्यक्तित्व-विकास के माध्यम से व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र का सशक्तिकरण संभव है।
शताब्दी वर्ष का संकल्प
संघ अपने शताब्दी वर्ष में व्यक्ति-निर्माण और पंच-परिवर्तन कार्यक्रम को समाज में व्यापक बनाने का प्रयास करेगा। सामाजिक सद्भाव, परिवार-प्रणाली का संरक्षण, पर्यावरण रक्षा, स्वावलंबन और नागरिक कर्तव्यों का पालन—ये पाँच संकल्प हर व्यक्ति और परिवार अपनाएँ, यही उद्देश्य है।
इतिहास में भारत ने सदैव विश्व संतुलन को पुनर्स्थापित किया है। आज भी यही अपेक्षा हम पर है। विजयादशमी के इस पावन अवसर पर हम सब संकल्प लें कि अपने पूर्वजों द्वारा दिए गए इस दायित्व को निभाते हुए भारत की सच्ची पहचान को पुनः स्थापित करेंगे।
भारत माता की जय!