Thursday, August 7, 2025
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Story by Kripashankar Mishra: चार पेड़े

Story by Kripashankar Mishra: कहानी वही जो दिल को छू ले..लीजिये गाजीपुर के कृपाशंकर जी की हृदयस्पर्श करने वाली कलम का स्वाद..

Story by Kripashankar Mishra: कहानी वही जो दिल को छू ले..लीजिये गाजीपुर के कृपाशंकर जी की हृदयस्पर्श करने वाली कलम का स्वाद..

मुख्य सड़क पर सैकड़ों एकड़ में बना सरकारी प्लांट। सुबह-शाम काम करने वालों की इतनी भीड़ जमा होती है कि देखकर मेले का भ्रम होता है। सिर पे पीली टोपी लगाये, हाथ में साधारण सा झोला लटकाये जिसमें टिफिन होता है, लोग ड्यूटी पकड़ने के लिए भागते नजर आते हैं!
देर शाम उस रास्ते से गुजर रहा था। सामने रेलवे क्रासिंग पर गेट बंद था सो रुकना पड़ा। तभी पीछे से एक तेज आवाज गूँजी….
“गाँव जा रहे हैं क्या?”
मैंने पलटकर देखा! वो मेरे पड़ोसी गाँव का एक युवा था, मजदूर के वेष में!
“हाँ, जा तो रहा हूँ!”
“मुझे भी लेते चलेंगे?”–उसकी आवाज में कातरता थी।
“बैठ जाओ भई!”
उसका चेहरा खिल उठा।
क्रासिंग के कुछ आगे ही बस स्टैंड था। उसने धीरे से कहा…
“बस दो मिनट के लिए रुकियेगा?”
“कुछ काम है?”
“घर के लिए पेड़े लेने हैं!”
मैंने मोटरसाइकिल रोक दी!
वो तेजी से सामने की दुकान में गया और जल्दी ही लौट आया!
“पेड़े ले लिए?”–मेरी नजर उसके खाली हाथ पर थी।
“हाँ!”–वो जेब को थपथपाते हुए मुस्कराया।
मैंने कहा कुछ नहीं, बस उसे देखता रहा!
उसने मन की बात पकड़ ली….
“बस चार ही लेने थे। दुकानदार ने कागज में लपेटकर दे दिए तो जेब में रख लिया!”
“बस चार….!”
“बहुत हैं जी!”
मैं फिर चुप लगा गया!
वो समझ गया….
“दो बच्चों के लिए, एक माँ और एक बीवी के लिए!”
“और तुम…?”
“मेरा क्या! कह दूँगा कि मैंने दुकान पर खा लिए!”
“यहाँ कब से काम कर रहे हो?”
“चार साल हो गए जी! पंद्रह-सोलह हजार बन जाते हैं महीने के! दिल्ली-बंबई जा के इससे ज्यादे थोड़े कमा लूँगा!”
“बात तो सही कह रहे हो! डेली आते हो या रुकते हो यहीं!”
“रोज बस से आ जाता हूँ जी, पच्चीस रुपये एक तरफ का भाड़ा लगता है!”
“हम्म!”
“आज आपने बैठा लिया तो पच्चीस रुपये बच गये मेरे! जिस दिन आप जैसा कोई मिल जाता है, उस दिन बचे पैसों से पेड़े खरीद लेता हूँ! माँ भी खुश और बीवी-बच्चे भी! आखिर उनको भी तो आसरा लगा होता होगा कि शाम को मैं उनके लिए कुछ लाऊँगा!”
“हूँ…!”
“पर रोज ये कहाँ संभव है जी! घर भी तो चलाना होता है!”
“कोई बात नहीं भाई….जैसे भी हालात हों, खुश रहना चाहिए!”
“खुश हूँ जी, बहुत खुश! पैसा भले कम है, पर अपने मेहनत की कमाई है, किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाना पड़ता!”
“चलो, अगले बस स्टैंड पर हम इकट्ठे मिठाई खायेंगे!”
“ना जी ना! आदत बिगड़ जायेगी मेरी! वैसे भी मेरी उमर अब बच्चों वाली तो रही नहीं! दो दो पीढ़ियों को देखना है! वो खुश रहें, तो मैं ऐसे ही खुश हूँ! आज आपकी वजह से घर पर पेड़े ले जा रहा हूँ, यही बहुत है!”
मेरे पास कहने को कुछ नहीं बचा था, पर सीखने को…..!*

(कृपा शंकर मिश्र, गाजीपुर)

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