Story: पढ़िए एक वास्तविकता के धरातल पर अस्तित्वमान एक कहानी – ओह, आधुनिक बहू सही निकली !..
मई का महीना था। सुबह से ही जैसे गर्मी का आतंक मचा था। विवेक ने सोचा क्यों न श्रीमती जी का काम आसान कर दिया जाए।
“सुनो! ब्रेकफास्ट और लंच छोड़ो आज ब्रंच करते हैं!”
“ब्रंच..ये क्या..?”
“मम्मा लंच और ब्रेकफास्ट के बीच के खाने को ब्रंच कहते हैं!” छोटा टीटू आकर सिखाने लगा तो नीना झल्ला उठी।“परेशान क्यों होती हो..पराठे सेंक लो। भुने आलू, पराठे और दही का रायता खाकर निश्चिंत हो जायेंगे।” विवेक की फरमाइश सुन बिफर पड़ी,
“पराठे सेंकना आसान है क्या? इस गर्मी में मुझसे चूल्हे के पास खड़े नहीं हुआ जाता..ऊपर से जितने लोग उतना स्वाद..किसी को आलू नहीं खाना तो कोई दही नहीं खायेगा। ऐसे में उसे कुछ और बनाना ही पड़ेगा। क्यों वह छोटी बहु बन कर आई। अच्छा होता अगर बड़ी होती। आराम से छोटी पर ऑर्डर चलाती और आराम करती!”
नीना का इशारा बुजुर्ग सास-ससुर की ओर था। बाहर का तापमान और अंदर का तापमान अब बराबर हो चला था। उसकी बड़बड़ से विवेक भी परेशान हो गया मगर बिना इस बात का परवाह किए नीना अपनी डफली अपना राग अलाप रही थी। दो घंटे की मेहनत लगी। विवेक और बच्चों के लिए पराठे सेंक कर उसने दाल चावल भिगो दिए। मुश्किल से ग्यारह बजे थे मगर लगता था जैसे दोपहर हो आई। दिन भी कितना बड़ा होता है न! बच्चों को भूख लग आयेगी ऐसे में फिर आग के पास..
उफ़ रसोई से छुट्टी कहां मिलने वाली है यही सोचती वह आराम करने आई तो देखा बच्चे लैपटॉप में फेसबुक खोले बैठे थे।
“मां! देखो चाची की तस्वीर.. चाचा-चाची इंग्लैंड में हैं। कितने अच्छे लग रहे हैं!”
“अरे! उनलोग का क्या है…सिर पर कोई जिम्मेदारी थोड़े ही है …बच्चे भी हॉस्टल में हैं..घूमने के सिवा काम ही क्या है..!”
“सुबह से कौन सा सुर पकड़ लिया है। तुम्हें पता भी है मेरे भाई-भाभी ने कितनी तकलीफें काटी हैं। अब अगर घूम फिर रहे हैं तो तुम्हें क्यों तकलीफ हो रही है!” भाई की बात पर विवेक से रहा न गया।
“क्यों..क्या मैं इकलौती बहु हूं? घर की जिम्मेदारियों में उनकी भागीदारी क्यों नहीं?”
इतनी देर से उसकी बड़बड़ सुनता विवेक अतीत में खो गया। उसकी आंखों के सामने बीस वर्ष घूम गए। जब भाभी शादी के बाद पहली बार घर आई थी। हर दिन त्योहार सा लगता था। लड़कों वाले घर में जहां लड़की की आदत न हो वहां बड़े प्रेम से सबके लिए नाश्ता बनाती और खिलाती भाभी बहुत स्नेहमयी लगती। घर के सारे काम करके भी खुश रहती थी। भैया के तबादले के बाद जब उन्हें बाहर जाना पड़ा तो भीगी आंखों से विदा लिया था। उन्हें पता था कि वह तनख्वाह बड़े शहर में रहने के लिए काफ़ी नहीं होंगी। कुछ ही दिनों बाद पता लगा कि घर के काम के साथ उन्होंने ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था। इस तरह वह घर -बाहर व बच्चों की जिम्मेदारियां उठाने में भैया का सहयोग करने लगीं। पूरे बीस वर्ष लगे तब जाकर बच्चों का करियर बना मगर ये सब तो नीना ने देखा ही नहीं। उसे तो बस अपना दुख नज़र आता। उसे लगता है कि उसके अलावा पूरी दुनिया मौज उड़ा रही है।
सबसे पहले उसने घर में काम करने वाली को हटाया जिसे रिटायरमेंट के समय से ही विश्वनाथ जी ने रखा था ताकि बुढ़ापे में उनकी सेवा होती रहे। वह खाना बनाकर घर के छोटे- बड़े सभी काम कर लेती थी। उसकी कर्मठता देख कर सब उसकी तारीफ करते थकते नहीं थे। ऐसे में नीना ने उसे यह कहकर निकाला कि वह घर की सदस्य नहीं बल्कि बाहरवाली है। इसलिए उसे ज्यादा महत्व नहीं मिलना चाहिए। विवेक की मां ‘जानकी जी’ की तबियत खराब रहती थी। उनसे किसी तरह की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती थी। अब पूरा परिवार उसके ही नियंत्रण में था। वह बनाएगी तो लोग खाएंगे अन्यथा भूखे रहेंगे।
तब जो बात विवेक समझ न सका था वह अब समझ गया। इन सब हरकतों के पीछे उसका स्वार्थ था। वह इतना ही चाहती थी की बस उसकी पूछ होती रहे। उसकी ही महत्ता बनी रहे। जब तक विवेक अपने ख्यालों में खोया था नीना ने मौका पाकर बड़ी बहू की फ़ोन मिला ही दिया।
“वाह दीदी! अकेले अकेले लंदन घूमा जा रहा है। कभी मम्मी को भी अपने साथ ले जाइए।”
“हां हां! तुमलोग भी आओ! परिवार के साथ घूमना का अपना ही आनंद है। “
“हमारी छोड़िए अपनी जिम्मेदारी संभालिए! मीठी-मीठी बातों से आखिर कब तक बहलाएंगी? आपको भी तो परिवार के प्रति कुछ कर्तव्य कर अपना अगला जन्म सुधारना चाहिए।” सारा फितूर निकाल कर शांत हो गई।
इधर माधवी का मूड पूरा ही खराब हो गया। वह पहले ही देवर की शादी कम पढ़ी- लिखी से करने के पक्ष में नहीं थी मगर ससुर जी के दिमाग में यही था कि गांव की कर्मठ लड़की ही परिवार संभाल पाएगी। यही सोचकर छोटे बेटे के लिए एक भरे पूरे परिवार की ग्रामीण बहू लेकर आए। कुछ समय तक सब ठीक रहा पर जैसे जैसे समय बीतता गया रंग उतरता चला गया।
उसकी बातों से इतनी दुखित हुई कि वापसी का टिकट करा सीधे ससुराल आ गई। उसे अचानक आया देख नीना की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। माधवी ने आते ही एक कर्मठ लड़की को काम पर रख लिया।
“दीदी …मैंने इतने बरस सेवा किया है। आप स्वयं काम करने की बजाय दूसरे से काम करा रही हैं.. इतनी ही चिंता है तो अपने साथ ले जाइए! इस तरह तो आप पल्ला झाड़ रही हैं।”
“देख छोटी! पहली बात यह कि मेट्रो में जीने के लिए हवा पानी भी खरिदना पड़ता है। फ्लैट के बंद घरों में ऐसी ताज़ी हवा मुश्किल से आती और दूसरी बात यह है कि ये बड़े से अहाते में आम,लीची व नारियल के पेड़ ससुर जी ने अपने हाथों लगाए थे कि रिटायरमेंट के बाद इसकी ठंडी छांव में आराम करेंगे। नौकरी वाली आधुनिक बहू की जगह उन्होंने एक घरेलु लड़की चुना जो स्नेहपूर्वक परिवार की देखभाल करेगी। घर के कामों के लिए जिन्हें बहाल किया उन्हें भी तुमने बाहर का रास्ता दिखा दिया और अब गृह स्वामी को भी विदा करने पर तुली हुई हो …इतना तो बता दो कि यह सब तुम्हारा है या उनका? “
“मैं तो बस आपके कर्तव्य याद…”
“अपनी जगह ही मदद के लिए स्टाफ रख दिया है। समय के साथ समाज बदला है। स्वयं काम न कर सकें तो बाहर से मदद लेने में कोई हर्ज नहीं है। तुम उन्हें उनके घर चैन से जीने दो। उनका जीवन,उनका स्वास्थ्य एवं उनकी पसंद हमारी प्राथमिकता भी यही होनी चाहिए और कुछ नहीं!”
बड़ी की साफ़गोई ने छोटी की छुट्टी कर दी थी। विश्वनाथ जी को यह अहसास हो गया कि बड़ी बहू जिसे वह बेहद आधुनिक समझते रहे वही समझदार निकली। ग्रामीण व अनपढ़ बहू घर – गृहस्थी की बजाय चालाकी में दक्ष निकली! इस बात का अहसास हुआ तो मन पर पड़ा भ्रम हट गया।
(अज्ञात वीर)